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संपादकीय

अन्नदाता कर्जदार क्यों?

July 18, 2016 02:33 PM

आर एल गोयल
अनाज मानवीय जीवन का आधार है। बिना भोजन के हम ज्यादा देर तक जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते। कहा जाता है कि अगर आदमी को भूख न सताती तो वह कुछ भी न करता। खाने के लिए ही तो है जिंदगी की सारी भागदौड़। सुबह से जो भागमभाग शुरू होती है, रात तक चलती रहती है जब तक कि आदमी थक कर चूर—चूर नहीं हो जाता। पुराने समय में तो लोग पेट की भूख शांत करने हेतु ही सारे प्रयास करते थे लेकिन आज प्राथमिकताएं बदल गई। खाना पहनना, रहना सब में स्टैंडर्ड होना लाजमी सा हो गया है। होटल—रेस्टोरेंट के पुराने बासी खाने में भी हमें स्टैंडर्ड दिखाई देने लगा है।         

सत्ता का केंद्र बिंदू खिलाड़ी, अभिनेता व कारपोरेट जगत बन चुका है। अनाज पैदा करके हरित—क्रांति लाने वाला किसान आज दाता होकर भी सरकारी नीतियों की बदौलत भिखारी से बदत्तर बन कर रह गया। मुफ्त बिजली—पानी, बीज, खाद पर सब्सिडी यानि सरकारी नीतियों ने उसे मान सम्मान देने की बजाए दया व भीख का पात्र बना दिया है।


इधर सत्ता का केंद्र बिंदू खिलाड़ी, अभिनेता व कारपोरेट जगत बन चुका है। अनाज पैदा करके हरित—क्रांति लाने वाला किसान आज दाता होकर भी सरकारी नीतियों की बदौलत भिखारी से बदत्तर बन कर रह गया। मुफ्त बिजली—पानी, बीज, खाद पर सब्सिडी यानि सरकारी नीतियों ने उसे मान सम्मान देने की बजाए दया व भीख का पात्र बना दिया है।
ठिठुरती सर्दी व कड़कती धूप में कड़ा परिश्रम करके भी अगर जरूरतें पूरी न हो, मान सम्मान न मिले और कर्ज में डूबा रहे तो फिर अगली पीढियां अगर उस काम से उपराम होकर नशे की शरण में जा पड़ी तो कसूर किसका है? नशा करके अपनी व परिवार की जिंदगी तबाह करने वाले का, दिन रात मिट्टी के साथ मिट्टी होकर सरकारी रहम के मोहताज होने वाले का, या फिर सरकार की नीतियों और नीयत का?
कर्ज में डूबे किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं को हमारी सरकारों व हमारे नेताओं तथा हमारी अफसरशाही ने कभी गंभीरता से नहीं लिया। उन लोगों में चर्चा होती है कि कर्ज लेकर पैसा सुरा—सुंदरी में उड़ा दिया, फिर कर्जदार होने का रोना रोते हुए खुदकशी कर ली, तो कसूर किसान का ही हुआ न परन्तु वे लोग अपने द्वारा किए जा रहे घपलों व भ्रष्टाचार को या तो भूल जाते हैं या उस पर पर्दा डालने के लिए ही ये रूख अख्तियार करते हैं। वर्ना क्या यह संभव है कि केन्द्र सरकार की ओर से दिए गए 71 हजार करोड़ रूपयों में से मात्र 994 करोड़ रूपए पंजाब के हिस्से में आए, जो कुल अनुदान का एक प्रतिशत मात्र है। सरकारों का रूख इस मामले में उदासीनता वाला रहा है। चाहें सरकार कोई भी हो।
ताज्जुब की बात है कि पंजाब की अलग—अलग एजेंसियां आत्महत्याओं के अलग—अलग आंकड़े देती रही है। पंजाब राज्य किसान आयोग के रिकार्ड में वर्ष 2005 में 2100 आत्महत्याएं दर्ज है जबकि पंजाब पुलिस के सन् 2008 तक के राजनामचे में कर्जदार होकर मरने वाली मात्र पांच आत्महत्याएं दर्ज हैं। पंजाब राजस्व विभाग के पास 132 आत्महत्याएं दर्ज हैं।
कटु सत्य यह है कि देश के अन्य राज्यों के मुकाबले पंजाब में किसानों की आत्महत्याएं के केस सब से अधिक हैं किन्तु सरकार की उदासीनता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि पिछले आठ वर्षो से किसानों की आत्महत्याओं का कोई प्रमाणित सर्वे ही नही करवाया गया। भारतीय किसान यूनियन द्वारा इस मुद्दे पर आन्दोलन किया जा रहा है। प्राप्त जानकारी के अनुसार आंदोलन का दूसरा चरण शुरू होने से पहले ही 2300 किसान गिरफ्तार कर लिए गए। एक गैर सरकारी संस्था द्वारा उच्च न्यायालय में जनयाचिका भी दायर की गई जिसमें पंजाब के किसानों के कर्ज तले दबे होने से पैदा होने वाली दुर्दशा व इस कारण होने वाली आत्महत्याओं की संख्या का दु:खद वर्णन है। जनहित याचिका के अनुसार सरकार ने किसानों के दर्द को अनदेखा किया। उनके लिए कोई उचित मुआवजा राशि नीति नहीं बनाई, न ही मुआवजे की अदायगी हो रही है। दरअसल मुआवजे की उचित अदायगी तो तभी होती यदि सरकार ने इस गंभीर मुद्दे से निपटने का कोई कारगर तंत्र खड़ा किया हो। जब राज्य सरकार मानने को तैयार ही नही कि राज्य में कर्ज के बोझ तले दबे किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं तो भला मुआवजा देने की कवायद कैसे की जा सकती है। नजीतन अनाज में देश को आत्मनिर्भर करने वाला मेहनती किसान आज स्वयं को बेबस और लाचार जान कर आत्महत्या का कायरता पूर्ण रास्ता अपना रहा है।

 
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