संतोष गुप्ता (एफपीएन)
शिक्षा क्रांति का नारा जोर-शोर से दिया गया या पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसके लिए उपकर भी लगाया। राज्यों ने भी इसे ज्वलंत मुद्दे की तरह कैच किया। सर्वशिक्षा अभियान, नव-साक्षरता आन्दोलन स्कूली बच्चों को 'मिड-डे-मील' के नाम पर अरबों रूपए खर्च कर दिए। वर्ष 2010 में इस क्षेत्र में कई कदम आगे बढते हुए भारत के प्रत्येक नागरिक को शिक्षा प्राप्त करने का संवैधानिक अधिकार भी दे दिया किन्तु इस सारी जद्दोजहद का नतीजा क्या निकला, वही ढाक के तीन पात।
शिक्षा स्तर को जांच-पड़ताल समितियों ने इतने चौंका देने वाले तथ्य सामने रखे हैं कि आम समझ रखने वाले लोग भी हिल गए। मसलन पांचवी कक्षा के छात्रों को अपनी भाषा की वर्णमाल का भी ज्ञान नहीं, मिडल कक्षाओं के छात्र साधारण जमा-घटा, गुणा या विभाजन के सवाल भी हल नहीं कर पाते। यह हाल सरकारी स्कूलों का है। निजी स्कूल तो यूं भी शिक्षा की दुकानों का रूप ले चुके हैं। जहां शिक्षा व संस्कार तो बस नाम का है। बस कमाई के नए -नए ढंग अपनाए जाते हैं और शिक्षकों को सम्मानजनक वेतन तो क्या मिलना, मान-सम्मान भी नहीं मिलता। मालिक को सिर्फ कमाई चाहिए, छात्र की पढाई या शिक्षकों की मेहनत से उसे कोई सरोकार नहीं।
शिक्षा के अधिकार के बाद लगता था कि गरीब परिवारों के बच्चे भी निजी पब्लिक स्कूलों में शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे। उनके दाखिले से होने वाला घाटा सरकार पूरा करेगी। किन्तु बीते छः वर्ष से निजी स्कूल ये आदेश टालते आ रहे हैं। अतः स्कूलों में निर्धनों के लिए आरक्षित सीटें उन्हें आज भी प्राप्त नहीं हो पा रही। इधर सरकारी व प्राइवेट स्कूलों के अध्यापकों का स्तर भी निम्न पाया गया, जब उनके 'सिलेबस' शब्द के हिज्जे भी सही नहीं पाए गए। ऐसे शिक्षकों के आधार पर यदि हमारी सरकारें शिक्षा क्रांति की बड़ी—बड़ी बातें करें तो दोष शिक्षकों का नहीं, बल्कि सरकारी नीतियों का है। हाल ही में पंजाब से आई खबर ने सरकार की नीयत की पोल ओर खोल दी। यहां अध्यापकों की पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री संबंधी विवाद के चलते विभाग द्वारा 2260 की बतौर लैक्चरार तरक्की रोक दी गई। सरकारी सर्वेक्षणों के मुताबिक इस समय सिर्फ पंजाब में ही लगभग 40 हजार अध्यापकों की सीटें खाली पड़ी हैं। बादल सरकार ने 17 हजार नए टीचर भर्ती करने की घोषणा की थी किन्तु बड़ी मुश्किल से अब तक मात्र चार हजार टीचर भर्ती किए गए हैं।
एनसीईआरटी के नैशनल अचीवमैंट सर्वे के मुताबिक पांचवीं कक्षा तक के 60 फीसदी छात्र तो यह भी नहीं बता पाए कि तीन अंकों से बनी सबसे बड़ी संख्या क्या होगी। इसी तरह 35 फीसदी छात्रों को चतुर्भुज की भी जानकारी नहीं थी। मजेदार तथ्य यह कि इस समय देश में 7.90 लाख प्राइमरी स्कूल है जिनमें कुल 13 लाख छात्र पढ़ते हैं यानि औसतन एक स्कूल में दो छात्र भी नहीं हैं।
निर्धन परिवारों के मेघावी छात्रों की खातिर इधर आदर्श स्कूल खोलने की योजना बनाई गई। पंजाब सरकार ने तीन स्कूलों की संख्या बढा कर 17 कर दी। आकर्षक बजट भी दिया गया किन्तु परिणाम यहां भी निराश करने वाला ही मिला। बच्चों को शिक्षा के क्षेत्र में चमकने का अवसर मिले, इस कमसद से राज्य सरकार ने मैरिट स्कूल खोलने का फैसला किया। इन स्कूलों में दाखिला सिर्फ उन्हीं छात्रों को मिलना था जिनके अंक 80 प्रतिशत से उपर होंगे। इन मेघावी छात्रों के लिए एक लिखित परीक्षा रखी गई। इस परीक्षा में छात्रों को इंग्लिश गणित व सांइस में कम से कम 50 फीसदी अंक लेने थे। हैरान व परेशान करने वाला तथ्य यह है कि 80 प्रतिशत से उपर अंक प्राप्त करने वाले मात्र 52 प्रतिशत छात्र ही यह परीक्षा पास कर सके इन मेधावी छात्रों की पुनः परीक्षा ली गई जिसके लिए 2034 छात्रों ने आवेदन किया लेकिन दूसरी बार भी सिर्फ 1053 छात्र ही यह परीक्षा पास कर सके। यानि पहली काउसंलिग के बाद इन स्कूलों की 1579 सीटें खाली रह गई।
इन तथ्यों की रोशनी में सवाल उठता है कि सरकार द्वारा किए जा रहे निरंतर प्रयत्नों से शिक्षा का स्तर सुधरने की बजाए गिरता क्यों जा रहा है। इसके लिए अफसरशाही को पूर्णतः जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। नीतियां चूंकि नौकरशाहों द्वारा ही बनाई व लागू की जाती है अतः उन नीतियों को लागू करने में दोषपूर्ण तरीके ही इस सारे हालत के लिए जिम्मेदार है। सरकारों ने पैसा जारी करना होता है किन्तु भ्रष्ट नौकरशाही अपनी सारी शक्ति उस धन का अपने तरीके से इस्तेमाल करने में लगा देती है, जिस उद्देश्य के लिए धन जारी किया जाता, वह कहीं दूर छूट जाता है। दरअसल हमारे शासन तंत्र में चीनी कहानी ‘राज नंगा है’ वाले मसखरों की न केवल भरमार हो गई है बल्कि सरकारों में इन मसखरों का पूरा दबदबा है। आज जरूरत है कि इन लोगों के कपट का न सिर्फ डटकर खड़ा सामना किया जाए बल्कि उनकी असलियत उजागर करके जनता रूपी राजा को नंगा होने से बचाया जाए।