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संपादकीय

अधिकारियों की फौज — करने गई थी मौज

September 01, 2016 12:46 PM

संतोष गुप्ता (एफपीएन)
रियो ओलंपिक में भाग लेने हेतु जब भारतीय समूह देश से खाना हुआ था तो मैडल लाने व खिलाड़ियों की क्षमताओं के बड़े—बड़े दावे किए जा रहे थे। भारतवासी मुंगेरी लाल की तरह हसीन सपने सजाने लगे। चूंकि लंदन ओलंपिक में भारत ने छ: पदक जीते थे अत: पीडब्ल्यूसी का आकलन था कि इस बार कम से कम 12 पदक अवश्य प्राप्त होंगे। रियो जाने वाले दल में क्षमताएं भी थी इतने मैडल प्राप्त करने की लेकिन अधिकारियों की फौज दरअसल वहां मैडल जीतने की गर्ज से तो जैसे गई ही नहीं थी, वे सब तो बस विदेश यात्रा पर मौज मस्त करने गए। न खिलाड़ियों को समय पर चिकित्सा सहायता मिली और न पानी व खाना। नरसिंह के खाने में कोई मिलावट कर गया मगर किसी को कुछ पता नहीं चला। किसी के मन में पदक लाने का निशाना होता तभी तो सारी चीजों पर पैनी निगाह रखी जाती। नाडा के तर्क वाडा ने स्वीकार कर भी लिए किन्तु सबूत तो तभी जुटाते अगर इस तरफ ध्यान केन्द्रित करते। आखिर हमारे प्रतिभावन खिलाड़ी को डोपिंग का कलंक सहते हुए न सिर्फ वापिस लौटना पड़ा बल्कि चार वर्ष का प्रतिबंध भी लग गया।
आखिर हम देशप्रेम या देशभक्ति को कब समझेंगे और कब अपनाएंगे। विश्व के सामने अपने देश को बदनाम करते हुए हमें जरा भी संकोच तक नहीं होता। उच्च सभ्यता व संस्कृति का दावा करने वाले देश के लोग जब इतने बड़े अंतर्राष्ट्रीय समारोह में इस तरह के गैर जिम्मेदारी वाले व्यवहार का प्रदर्शन करते हैं तो क्या वे सजा के हकदार नहीं। वैसे हमारी नाकामी की कहानी तो यहीं से शुरू हो गई थी जब खेल मंत्रालय ने ओलंपिक खेलों की तैयारी हेतु 40 करोड़ रूपए मंजूर किए थे लेकिन दिसंबर 2015 तक इनमें से केवल 6 करोड़ रूपए खर्च किए गए। जुलाई 2016 तक 25 करोड़ की राशि ही खर्च हो पाई, यानि एक तरफ खिलाड़ी सुविधाओं का रोना रोते रहे और दूसरी तरफ मंजूर की गई राशि खर्च भी नहीं हो पाई। गलती को ढूंढना व जिम्मेदारी तय करना जरूरी है, आज अगर ऐसे गैर जिम्मेदार लोगों को छोड़ दिया गया तो उनके हौंसले और बुलंद होंगे। अत: जिम्मेदारी तय करके उन्हें उचित सजा दिया जाना आवश्यक है ताकि अगले किसी अंतर्राष्ट्रीय समारोह में दोबारा ऐसी गलती न दोहराई जा सके।   

विश्व के सामने अपने देश को बदनाम करते हुए हमें जरा भी संकोच तक नहीं होता। उच्च सभ्यता व संस्कृति का दावा करने वाले देश के लोग जब इतने बड़े अंतर्राष्ट्रीय समारोह में इस तरह के गैर जिम्मेदारी वाले व्यवहार का प्रदर्शन करते हैं तो क्या वे सजा के हकदार नहीं। गलती को ढूंढना व जिम्मेदारी तय करना जरूरी है, आज अगर ऐसे गैर जिम्मेदार लोगों को छोड़ दिया गया तो उनके हौंसले और बुलंद होंगे। अत: जिम्मेदारी तय करके उन्हें उचित सजा दिया जाना आवश्यक है ताकि अगले किसी अंतर्राष्ट्रीय समारोह में दोबारा ऐसी गलती न दोहराई जा सके।


इन खेलों में भारतीय टीम के पुरूषों के मुकाबले महिलाओं का प्रदर्शन बेहतर रहा है। सच यह भी है कि आबादी के हिसाब से हमारा देश ओलंपिक पदक मामले में सबसे निचले पायदान पर है। भारत में खेलों के लिए 1500 करोड़ रूपए का केन्द्रीय बजट रखा जाता है। यानि अगर पदक जीतने वाले खिलाड़ी चुन कर उन पर सौ करोड़ रूपया भी खर्च कर दिया जाता तो भी कम से कम हम पंद्रह मैडल प्राप्त करते। रूपए का खेल बजट भी होता है यानि अगर एक खिलाड़ी पर हर राज्य 25 करोड़ रूपए खर्च करे तो प्रत्येक राज्य में 10 खिलाड़ी पदक जीतने लायक हो सकते हैं। किन्तु त्रासदी है कि हमें यह गणनाएं गैर जरूरी लगती है। सरकारी धन हम मुफ्त का समझ कर उड़ाते हैं या हर बार उनमें से अपना ज्यादा से ज्यादा हिस्सा निकालने में व्यस्त रहते हैं। हम भूल जाते हैं कि इस धन में कुछ लोगों की गाढ़े पसीने की कमाई भी होती है। दूसरी सबसे बड़ी कमी खेल नीति की है। चीन का उदाहरण हमारे सामने है। वहां प्रतिभावान खिलाड़ी छोटी उम्र में ही चुन लिए जाते हैं। उन्हें ओलंपिक में पदक हासिल करने योग्य बनाने हेतु हर तरह की मदद दी जाती है। युवा प्रतिभाओं को ज्यों ही नेशनल सेंटर में दाखिला मिल जाता है तो उनकी पूरी जवाबदेही सरकार की हो जाती है।
भारत ने इस बार सिर्फ 15 खेलों में भाग लिया। भारतीय टीम में पांच ओलंपिक पदक विजेता थे। दुनियां में ओलंपिक पिछले 88 वर्ष से हो रहे हैं और दुनियां में आबादी के लिहाज से दूसरे सबसे बड़े देश की त्रासदी देखें कि उसने अब तक कुल 26 पदक जीते हैं। दूसरी तरफ चीन है, आबादी के लिहाज से यह भारत से भी आगे है किन्तु मैडल प्राप्त करने के मामले में भारत इसके समक्ष कहीं भी नहीं ठहरता। लंदन में हुए ओलंपिक खेलों में भारत ने छ: मैडल प्राप्त किए और चीन ने 87 और इस बार भारत ने दो और चीन को 70 मैडल प्राप्त हुए। भारतीय दो मैडल प्राप्त करके भी जश्न मना रहे हैं जबकि चीन में 17 मैडल कम प्राप्त होने पर मातम छाया है। चीन सरकार पूरी तरह जैसे हिल गई है कि आखिर यह हुआ कैसे कि लंदन में चीन पदक तालिका में दूसरे स्थान पर था और इस बार तीसरे स्थान पर कैसे आ गया। हालांकि 2008 में हुए ओलंपिक में चीन पदक तालिका में शीर्ष पर था किन्तु उस समय ओलंपिक का आयोजन चीन के शहर बीजिंग में ही हुआ था लेकिन इस बार 17 मैडल कम आने पर चीनी मीडिया में भी जैसे हड़कंप मचा पड़ा है कि आखिर इस पतन के लिए जिम्मेवार कौन है, कैसे सुनिश्चित हो कि आगे से ऐसा नही होगा। दूसरी तरफ भारत की न तो सरकारों को कोई फर्क पड़ता है और न मीडिया ही इस बात को गंभीरता से ले रहा है। भला हो बैडमिंटन कोच गोपीचंद पुलैला का जिसने अपनी खिलाड़ी पर सख्ती भी की और मेहनत भी। उसके प्रतिफल के रूप में भारत को गौरव करने लायक एक मात्र रजत पदक मिला। पहले भारत हालांकि कोच गोपीचंद जैसे लोगों के लिए ही जाना जाता था लेकिन भारतीय समाज में छाए भ्रष्टाचार ने अब शायद ऐसे चरित्रों को लील लिया। गोपीचंद पुलैला को शत् शत् प्रणाम, जो कीचड़ में रहकर भी फूल कमल का बन कर खिले। बाकी लोेग तो मुंगेरी लाल की तरह हसीन सपनों में ही खोए रहे।

 
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