—संतोष गुप्ता
करोना के कारण हुए लॉकडाउन ने देश की अर्थव्यवस्था को तो तहस-नहस किया ही था, लेकिन इस दौरान इतना कुछ अप्रिय घट गया कि देश एक बार फिर छोटा-सा बच्चा दिखाई देने लगा है। स्वतंत्रता के बाद बड़े बुरे दौर आए। निरंतर तीन युद्धों से गुजरने के बाद जवानी की दहलीज पर पैर धरने ही लगा था कि उस पर जैसे गमों का पहाड़ ही टूट पड़ा।
कांग्रेस के शासन में हजार कमियां थी, लेकिन देश सरक-सरक कर निरंतर आगे बढ़ रहा था। विश्व की अर्थव्यवस्था डांवाडोल हो रही थी, किंतु प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मौन रहकर भी इसे आगे बढ़ा रहे थे। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दरअसल अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के चलते अपनी ताकत व सूझबूझ के दम पर देश को बचपन की कई सीढ़ियां तेजी से चढ़ा दी थी। गरीबी का मारा अविकसित देश भारत विकासशील देश का दर्जा पाने को छटपटा रहा था। विपरीत परिस्थितियों में भी मनमोहन सिंह ने विकास की गति बनाए रखी लेकिन लोग उनकी धीमी गति से उबने लगे थे। सो नरेंद्र मोदी में लोगों को इंदिरा गांधी वाली तेजी का भ्रम होने लगा। लच्छेदार भाषण और विरोधियों को एक किनारे लगा देने की कला ने इस भ्रम को आसमान की तरह चारों तरफ अच्छादित कर दिया। भारत को भाजपा का शासन मिला। भारतीय संविधान की रक्षा करने की शपथ लेकर सरकार बनी, लेकिन अब वही सरकार संविधान की आत्मा के साथ बलात्कार कर रही है। कृषि क्षेत्र पर कानून बनाने का अधिकार संविधान में राज्यों को दिया गया है लेकिन करोना महामारी की आड़ में केंद्र सरकार द्वारा अध्यादेश लाए गए।
अच्छे दिनों और सुशासन का तीर भाजपा को ऐसा रास आया कि लोग भूख-प्यास सब भूल गए अच्छे दिनों की चाह में। नोटबंदी हुई, लोग आस लगाए रहे कि उनके अच्छे दिन शायद अब ज्यादा दूर नहीं हैं। प्रधानमंत्री ने 50 दिन का समय मांगा। लेकिन अच्छे दिनों से पहले ही जीएसटी आ गई। अब लोग असमंजस की स्थिति में दिखे, लेकिन चूंकि नोटबंदी को विशेषज्ञों ने फ्लॉप शो घोषित कर दिया था सो जीएसटी को लोगों ने आधे-अधूरे मन से ही स्वीकार किया। लेकिन यहां भी गड़बड़झाला ही होता रहा। मध्यम दर्जे का व्यापारी चौपट हो गया। इसके बाद डिजिटल इंडिया नामक चिड़िया ने विकास के द्वार पर दस्तक दी लेकिन विकास का द्वार बंद ही रहा। इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता विकास नामक द्वार पर करोना महामारी के बवाल ने "खुल जा सिम सिम" कर दिया। सोने-चांदी, हीरे-जवाहरात के साथ-साथ देश में धन की वर्षा करने वाली सार्वजनिक कंपनियां ही देशवासियों के हाथों से नहीं निकली बल्कि करोना महामारी की विपदा में भाजपा सरकार ने अवसर तलाशा।
सरकारी संपत्तियों के बाद अडानी-अंबानी जैसे पूंजीपतियों को किसानों की जमीन पर अपनी सहूलियत के हिसाब से कब्जा करने का अधिकार भी सरकार ने दे दिया। भारतीय संविधान की रक्षा करने की शपथ लेकर सरकार बनी, लेकिन अब वही सरकार संविधान की आत्मा के साथ बलात्कार कर रही है। कृषि क्षेत्र पर कानून बनाने का अधिकार संविधान में राज्यों को दिया गया है लेकिन करोना महामारी की आड़ में केंद्र सरकार द्वारा अध्यादेश लाए गए। लोकसभा में अपनी पार्टी के बहुमत का फायदा उठाते हुए आनन-फानन में अध्यादेश को कानून का जमा भी पहना दिया गया। राज्यसभा में हुआ हंगामा देखकर देशवासी दंग थे कि कांग्रेस शासन के बाद जिस साफ-सुथरी व जनहित में काम करने वाली सरकार की कल्पना की गई थी, क्या उसकी असलियत यही है? राज्यसभा में संवैधानिक नियमों व कानूनों की जो धज्जियां उड़ाई गई, उसने देशवासियों के सारे भ्रम तोड़ दिए।
महाराष्ट्र में सरकार बनाने को छटपटाती भाजपा, राजस्थान में राजेश पायलट को बहका कर गहलोत सरकार का तख्तापलट करने की नाकाम कोशिश और बिहार चुनाव में केंद्र की भाजपा सरकार की कुटिलता पूर्ण भूमिका ने भाजपा नेताओं को पूरे देश के सामने नंगा कर दिया था। कृषि कानूनों के खिलाफ पंजाब में 2 महीने तक किसान शांतिपूर्ण धरने प्रदर्शन करते रहे। लेकिन केंद्र सरकार के कान पर जब जूं तक ना रेंगी तो "दिल्ली चलो" का नारा बुलंद किया गया।
सत्ता के घमंड में चूर केंद्र सरकार किसान संघर्ष का सही से अनुमान लगाने में पूरी तरह विफल रही। नतीजतन हरियाणा सरकार को जिम्मेदारी दी गई कि उन्हें हरियाणा ही पार ना करने दिया जाए। आज्ञाकारी पुत्र की भांति खट्टर सरकार अपने आका को खुश करने हेतु घुटनों के बल आ गई। पंजाब के किसानों को रोकने के लिए वह जो कर सकती थी, उससे कई गुना अधिक करने के बाद भी उसे मुंह की खानी पड़ी। अब दिल्ली को पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान के किसानों ने पूरी तरह घेर रखा है। केंद्र सरकार के साथ किसानों की कई दौर की बातचीत से अब तक कोई नतीजा नहीं निकला।
दरअसल इस समय सरकार हिंदुस्तान को अडानीस्तान व अंबानीस्तान बनाने की जिद पाले हुए दिखाई दे रही है। शास्त्रों में अक्सर स्त्री-हठ, बाल-हठ और राज-हठ का जिक्र आता है। इनमें राज-हठ देश और समाज के लिए सदैव घातक सिद्ध होता है, वह हठ चाहे मोहम्मद तुगलक का हो या औरंगजेब का, उसने देश और समाज का हमेशा नुकसान ही किया है। मौजूदा राज-हठ की बदौलत देश को कई खरब का नुकसान हो चुका है और सबसे कड़वी सच्चाई यह भी मानी जा रही है कि अंबानी व अडानी लगभग इतना धन अब तक सरकार को भेंट स्वरूप दे भी चुके हैं। देश को इन पूंजीपतियों के पास गिरवी तो मौजूदा सरकार पहले ही रख चुकी है, कृषि कानूनों के माध्यम से अब हिंदुस्तान को अडानीस्तान- अंबानीस्तान बनाने की कोशिश की जा रही है। किसान संघर्ष की असली ताकत को आंकने में अब तक मोदी सरकार पूरी तरह विफल रही है। दरअसल पूंजी पतियों के आगे वो इतनी अधिक झुक गई कि देश की असली ताकत की तरफ आंख उठाकर देखने की जहमत भी उसने नहीं की।
हरियाणा प्रदेश को यूं भी वीरों की भूमि कहा जाता है और पंजाब क्योंकि उसका बड़ा भाई है अतः इस संघर्ष में हिंदुस्तान की अस्मिता को बचाने की जिम्मेदारी जब बड़े भाई होने के नाते पंजाब के किसान संगठनों ने ली तो सभी प्रदेशों के किसान संगठन अपने पूरे दलबल के साथ आ पहुंचे। अब हिंदुस्तान को अंबानीस्तान या अडानीस्तान बनाना इतना आसान दिखाई नहीं देता। राज-हठ का खामियाजा तो देशवासी भुगत ही रहे हैं लेकिन अपनी धरती को वे जीते जी इन लोगों के हाथों में शायद नहीं जाने देंगे।