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मनोरंजन

मेरे देश की धरती सोना उगले... उगले मोटी कीलें ...

February 16, 2021 08:56 PM

हास्य व्यंग्य

  वासंती ब्यार में या राष्ट्रीय पर्वों के आसपास, अपने भारत कुमार जी, जब टी. वी पर अपने चिरपरिचित अंदाज़ में दो उंगलियों से अपनी आखें छिपाए किसी चैनल पर अपनी फिल्म उपकार के गीत -‘ मेरे देश की धरती सोना उगले...उगले हीरे मोती...’...... देखते होंगे और दूसरे चैनल पर, उसी धरती पर उगती हुई बड़ी बड़ी कीलें उगलते देखते होंगे तो अपनी , दोनों आखें ,दोनों ही हाथों से पूरी तरह ढंक लेते होंगे!

देश की धरती से उगला सोना न जाने कहां गया होगा परंतु - बैलों के गले में घंुघरु जीवन का राग तो क्या सुनाएंगे , उल्टे, खेत से दो बैलों की जोड़ियां ही नदारद हैं। खेतों से हल, बैल और किसान तीनों गायब हैं। न रहट हैं ,न रहट की आवाजें बचीं हैं जिनसे लगे कहीं शहनाई बजे। शहनाई की बजाय लाउड स्पीकर गा गा कर सुना रहे हैं- दिल्ली चलो...बस दिल्ली चलो! किसान की जमीन खतरे में है।

बैल अनएमप्लॉयड हैं । बस किसान से पेंशन वसूल रहे हैं। हल खेतों की बजाय एंटीक आयटम बनकर हरे या सफेद झंडों पर लहरा लहरा के सबको बता रहे हैं कि भइया हमसे ही थी तुम्हारी जिंदगी। मुंशी प्रेमचंद ने, मुझे ही केंद्र बिंदु बनाया। मदर इंडिया की नरगिस, मुझे ही कंधे पर लाद कर अमर हो गई। मनोजकुमार ने मुझे ही उपकार में थीम बनाया था। दो बीघा जमीन मुझ से ही पापुलर हुई। खेत की हंसिया और दरातियां लाल झंडे पर चिपक के सबको मुंह चिढ़ा रही हैं। उनकी जगह मशीनों , हारवेस्टरों ने हड़प ली है।

हल की जगह ट्र्ैक्टर चल रहे हैं पर खेत की जगह दिल्ली की सड़कें जोत रहे हैं। रहट की शहनाईयां , ट्यूबवेल की आवाज में दब गई हैं। बैलों के गले की घ्ंाटियों की जगह मोटर साइकिल या जीपों के हार्न बज रहे हैं। लस्सी से मक्खन निकालने और साथ साथ गाने का वातावरण बदल चुका है। महिलाएं अब हाथ से लस्सी नहीं बिलोती न साथ में कोई लोकगीत गुनगुनाती है। अब वह मोबाइल पर गाने सुन रही है, लस्सी रिड़कने का काम पंजाब में तो जुगाड़ पालिसी के तहत , वाशिंग मशीनें ही निपटा लेती हैं । मुटियारें या तो चंडीगढ़ घूमना पसंद करती हैं या सीधे फलाई टू कानाडा । अधिकांश ने मशीनंे लगा ली हैं। बैल गाड़ियां टै््रक्टर ट्र्ालियों बन गई हैं।

गुलशन बावरा आज होते तो अपने गाने- ‘आई झूम के वसंत, झूमो संग संग’ की छीछालेदर होते देख अपने बाल नोच लेते। क्योंकि वसंत के फूल खेतों से ज्यादा दिल्ली के बार्डरों या टोल प्लाजाओं पर खिल रहे हैं। पतंगें गायब हैं । पतंग बेचने वाले भी न्यूनतम समर्थन मूल्य मांग रहे हैं। पतंग उड़ाने वाले या तो ऑनलाइन पढ़ाई में बिजी हैं या कुछ व्हाट्स एप, पर ही पतंगे उड़ा रहे हैं, किसी की डोरी काट रहे हैं किसी की लूट रहे हैं।

इसी गाने की अगली लाइन- ‘रंग लो जी ..रंग लो जी.. दिलों को रंग लो....’.. बदलनी पड़ेगी । अब दिलों के रंग, लाल की जगह सफेद हो चुके हैं। उत्तर का किसान , दक्षिण के किसान से दिल की बात नहीं कर पा रहा है। बस दोनों , मन की बात सुन रहे हैं। अन्न की बात कोई कर नहीं रहा। तन के लिए, एसी ,कूलर ,डीप फ्रीजर, कोल्ड ड्र्ंिक, नहाने के लिए छप्पड. या ट्यूबवेल की फीलिंग लेने के लिए , ऑन द स्पॉट, बाथ टब का जुगाड़ भी हो चुका है ताकि ठंड में जिन सुविधाओं की कमी रही वह दिल्ली की 45 डिग्री वाली गर्मी में कम से कम गांधी जयंती तक न हो।

15 अगस्त पर लाल किले पर झंडा कौन लहराएगा, इस पर विचार विमर्श चालू आहे! दो अक्तूबर पर रामधुन गानी है या ‘तीनों बिल वापस लो’ पर रागिनी सुनानी है, इस पर हाई लेवल मीटिंग चल रही है क्योंकि सब की अपनी अपनी डफली हैे ओैर रागों की इब कमी कोई हैगी नी । कोई नई प्लानिंग होग्गी तो बता देवेंगे। तब तक जैराम जी की !
- मदन गुप्ता सपाटू, चंडीगढ

 
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