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श्राद्ध 20 सितंबर से 6 अक्तूबर तक परंतु 26 सितंबर को पितृपक्ष की तिथि नहीं

September 16, 2021 10:27 AM

मदन गुप्ता सपाटू (ज्योतिर्विद्)98156-19620

इस बार श्राद्ध 20 सितंबर से आरंभ होकर,6 अक्तूबर तक चलेंगे, परंतु पंचांगानुसार 26 सितंबर को पितृपक्ष की तिथि नहीं है।

श्राद्ध सारिणी

20 सितंबर, सोमवार: - पूर्णिमा श्राद्ध

21 सितंबर, मंगलवार: -प्रतिपदा श्राद्ध

22 सितंबर, बुधवार: - द्वितीया श्राद्ध

23 सितंबर, बृहस्पतिवार: - तृतीया श्राद्ध

24 सितंबर, शुक्रवार: - चतुर्थी श्राद्ध

25 सितंबर, शनिवार: - पंचमी श्राद्ध

27 सितंबर, सोमवार: - षष्ठी श्राद्ध

28 सितंबर, मंगलवार: - सप्तमी श्राद्ध

29 सितंबर, बुधवार: - अष्टमी श्राद्ध

30 सितंबर, बृहस्पतिवार: - नवमी श्राद्ध

01 अक्तूबर, शुक्रवार: - दशमी श्राद्ध

02 अक्तूबर1, शनिवार: - एकादशी श्राद्ध

03 अक्तूबर, रविवार: - द्वादशी, सन्यासियों का श्राद्ध, मघा श्राद्ध

04 अक्तूबर, सोमवार: - त्रयोदशी श्राद्ध

05 अक्तूबर, मंगलवार: - चतुर्दशी श्राद्ध

06 अक्तूबर, बुधवार: - अमावस्या श्राद्ध

दिन के अपरान्ह 11:36 मिनिट से 12:24 मिनिट तक का समय श्राद्ध कर्म के विशेष शुभ होता है। इस समय को कुतप काल कहते हैं।

क्यों करें श्राद्ध 

अक्सर आधुनिक युग में श्राद्ध का नाम आते ही इसे अंधविश्वास की संज्ञा दे दी जाती हैं । प्रशन किया जाता है कि क्या श्राद्धों की अवधि में ब्राहमणों को खिलाया गया भोजन पित्तरों को मिल जाता है\ क्या यह हवाला सिस्टम है कि पृथ्वी लोक में दिया और परलोक में मिल गया ! फिर जीते जी हम माता पिता को नहीं पूछते -----मरणेापरांत पूजते हैं! ऐसे कई प्रशन हैं जिनके उत्तर तर्क से देने कठिन होते हैं फिर भी उनका औचित्य अवश्य होता है।

आप अपने सुपुत्र से कभी पूछें कि उसके दादा - दादी जी या नाना -नानी जी का क्या नाम है। एकल परिवार में ,आज के युग में 90 प्रतिशत बच्चे या तो सिर खुजलाने लग जाते हैं या ऐं----ऐं ----- करने लग जाते हैं। परदादा का नाम तो रहने ही दें ।यदि आप चाहते हैं कि आपका नाम आपका पोता भी जाने तो आप श्राद्ध के महत्व को समझें। सदियों से चली आ रही भारत की इस व्यावहारिक एवं सुंदर परंपरा का निर्वाह अवश्य करें। हम पश्चिमी सभ्यता की नकल कर के मदर डे,फादर डे, सिस्टर डे,वूमन डे,वेलेंटाइन डे आदि पर पर ग्रीटिंग कार्ड या गीफट देके डे मना ल्ेाते हैं । उसके पीछे निहित भावना या उदे्श्य को अनदेखा कर देते हैं। परंतु श्राद्धकर्म का एक समुचित उद्ेश्य है जिसे धार्मिक कृत्य से जोड़ दिया गया है।

श्राद्ध  आने वाली संतति को अपने पूर्वजों से परिचित करवाते हैं। जिन दिवंगत आत्माओं के कारण पारिवारिक वृक्ष खड़ा है] उनकी कुर्बानियों व योगदान को स्मरण करने के ये 15 दिन होते है। इस अवधि में अपने बच्चों को परिवार के दिवंगत पूर्वजों के आदर्श व कार्यकलापों के बारे बताएं ताकि वे कुटुंब की स्वस्थ परंपराओं का निर्वाह करें।

ऐसा नहीं है कि केवल हिन्दुओं में ही मृतकों को याद करने की प्रथा है] इसाई समाज में निधन के 40 दिनों बाद एक रस्म की जाती है जिसमें सामूहिक भोज का आयोजन होता है।इस्लाम में भी 40 दिनों बाद कब्र पर जाकर फातिहा पढ़ने का रिवाज है। बौद्ध धर्म में भी ऐसे कई प्रावधान है।तिब्बत में इसे तंत्र-मंत्र से जोड़ा गया है। पश्चिमी समाज में मोमबत्ती प्रज्जवलित करने की प्रथा है।

दिवंगत प्रियजनों की आत्माओं की तृप्ति]मुक्ति एवं श्रद्धा पूर्वक की गई क्रिया का नाम ही श्राद्ध है। आश्विन मास का कृष्ण पक्ष श्राद्ध के लिए तय है। ज्योतिषीय दृष्टि से इस अवधि में सूर्य कन्या राशि पर गोचर करता है। इसलिए इसे ‘कनागत भी कहते हैं।जिनकी मृत्यु तिथि मालूम नहीं है] उनका श्राद्ध अमावस को किया जाता है। इसे सर्वपितृ अमावस या सर्वपितृ श्राद्ध भी कहते हैं। यह एक श्रद्धा पर्व है------भावना प्रघान पक्ष है। इस बहाने अपने पूर्वजों को याद करने का एक रास्ता। जिनके पास समय अथवा धन का अभाव है, वे भी इन दिनों आकाश की ओर मुख करके ]दोनों हाथों द्वारा आवाहन करके पितृगणों को नमस्कार कर सकते हैं। श्राद्ध ऐसे दिवस हैं जिनका उद्ेश्य परिवार का संगठन बनाए रखना है। विवाह के अवसरों पर भी पितृ पूजा की जाती है।

दिवंगत परिजनों के विषय में वास्तुशास्त्र का अवश्य ध्यान रखना चाहिए। घर में पूर्वजों के चित्र सदा नैर्ऋत्य दिशा में लगाएं। ऐसे ं चित्र देवताओं के चित्रों के साथ न सजाएं। पूर्वज आदरणीय एवं श्रद्धा के प्रतीक हैं। पर वे ईष्ट देव का स्थान नहीं ले सकते। जीवित होते हुए अपनी न तो प्रतिमा बनवाएं और न ही अपने चित्रों की पूजा करवाएं। ऐसा अक्सर फिल्म उद्योेग या राजनीति में होता है जिसे किसी भी प्रकार शास्त्रसम्मत नहीं माना जा सकता।

हमारे समाज में हर सामाजिक व वैज्ञानिक अनुष्ठान को धर्म से जोड़ दिया गया था ताकि परंपराएं चलती रहें।श्राद्धकर्म उसी श्रृंखला का एक भाग है जिसके सामाजिक या पारिवारिक औचित्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

धार्मिक मान्यताएं

हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद श्राद्ध करना बेहद जरूरी माना जाता है। मान्यतानुसार अगर किसी मनुष्य का विधिपूर्वक श्राद्ध और तर्पण ना किया जाए तो उसे इस लोक से मुक्ति नहीं मिलती ।

ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार देवताओं को प्रसन्न करने से पहले मनुष्य को अपने पितरों यानि पूर्वजों को प्रसन्न करना चाहिए। हिन्दू ज्योतिष के अनुसार भी पितृ दोष को सबसे जटिल कुंडली दोषों में से एक माना जाता है। पितरों की शांति के लिए हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक के काल को पितृ पक्ष श्राद्ध होते हैं। मान्यता है कि इस दौरान कुछ समय के लिए यमराज पितरों को आजाद कर देते हैं ताकि वह अपने परिजनों से श्राद्ध ग्रहण कर सकें।

ब्रह्म पुराण के अनुसार जो भी वस्तु उचित काल या स्थान पर पितरों के नाम उचित विधि द्वारा ब्राह्मणों को श्रद्धापूर्वक दिया जाए वह श्राद्ध कहलाता है। श्राद्ध के माध्यम से पितरों को तृप्ति के लिए भोजन पहुंचाया जाता है। पिण्ड रूप में पितरों को दिया गया भोजन श्राद्ध का अहम हिस्सा होता है।

मान्यता है कि अगर पितर रुष्ट हो जाए तो मनुष्य को जीवन में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। पितरों की अशांति के कारण धन हानि और संतान पक्ष से समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है। संतान-हीनता के मामलों में ज्योतिषी पितृ दोष को अवश्य देखते हैं। ऐसे लोगों को पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।

श्राद्ध में तिल, चावल जौ आदि को अधिक महत्त्व दिया जाता है। साथ ही पुराणों में इस बात का भी जिक्र है कि श्राद्ध का अधिकार केवल योग्य ब्राह्मणों को है। श्राद्ध में तिल और कुशा का सर्वाधिक महत्त्व होता है। श्राद्ध में पितरों को अर्पित किए जाने वाले भोज्य पदार्थ को पिंडी रूप में अर्पित करना चाहिए। श्राद्ध का अधिकार पुत्र, भाई.पौत्र, प्रपौत्र समेत महिलाओं को भी होता है।

श्राद्ध में कौओं का महत्त्व

कौए को पितरों का रूप माना जाता है। मान्यता है कि श्राद्ध ग्रहण करने के लिए हमारे पितर कौए का रूप धारण कर नियत तिथि पर दोपहर के समय हमारे घर आते हैं। अगर उन्हें श्राद्ध नहीं मिलता तो वह रुष्ट हो जाते हैं। इस कारण श्राद्ध का प्रथम अंश कौओं को दिया जाता है।

ंपितृ दोष में अवश्य करें श्राद्ध

मान्यता है कि यदि ज्योतिषीय दृष्टि से यदि कुंडली में पितृ दोष है तो निम्न परिणाम देखने को मिलते हैं

1.संतान न होना 2.धन हानि 3.गृह क्लेश 4.दरिद्रता 5.मुकदमे 6.कन्या का विवाह न होना 7.घर में हर समय बीमारी 8.नुक्सान पर नुक्सान 9.धोखे 10.दुर्घटनाएं11.शुभ कार्यों में विघ्न 

कैसे करें श्राद्ध ?

इसे ब्राहमण या किसी सुयोग्य कर्मकांडी द्वारा करवाया जा सकता है। आप स्वयं भी कर सकते हैं।

किस तिथि को किसका करें श्राद्ध ?

जिस तिथि को जिसका निधन हुआ हो उसी दिन श्राद्ध किया जाता है। यदि किसी की मृत्यु प्रतिपदा को हुई है तो उसी तिथि के दिन श्रद्धा से याद किया जाना चाहिए । यदि देहावसान की डेट नहीं मालूम तो फिर भी कुछ सरल नियम बनाए गए हैं। पिता का श्राद्ध अष्टमी और माता का नवमी पर किया जाना चाहिए। जिनकी मृत्यु दुर्घटना, आत्मघात या अचानक हुई हो , उनका चतुदर्शी का दिन नियत है। साधु- सन्यासियों का श्राद्ध द्वादशी पर होगा। जिनके बारे कुछ मालूम नहीं , उनका श्राद्ध अंतिम दिन अमावस पर किया जाता है जिसे सर्वपितृ श्राद्ध कहते हैं।

ये सामग्री ले लें -.सर्प-सर्पिनी का जोड़ा,चावल,काले तिल,सफेद वस्त्र,11 सुपारी,दूध,जल, तथा माला.।.पूर्व या दक्षिण की ओर मुंह करके बैठें.सफेद कपड़े पर सामग्री रखें.108 बार माला से जाप करें या सुख शांति,समद्धि प्रदान करने तथा संकट दूर करने की क्षमा याचना सहित पित्तरों से प्रार्थना करें।.जल में तिल डाल के 7 बार अंजलि दें.।.शेष सामग्री को पोटली में बांध के प्रवाहित कर दें. । हलुवा,खीर,भोजन,ब्राहमण,निर्धन,गाय, कुत्ते,पक्षी को दें।


श्राद्ध के 5 मुख्य कर्म अवश्य करने चाहिए ।

1.तर्पण-दूध,तिल,कुशा,पुष्प,सुगंधित जल पित्तरों को नित्य अर्पित करें.

2. पिंडदान-चावल या जौ के पिंडदान,करके भूखों को भोजन भेाजन दें

3. वस्त्रदानःनिर्धनों को वस्त्र दें.

4.दक्षिणाः भोजन के बाद दक्षिणा दिए बिना एवं चरण स्पर्श बिना फल नहीं मिलता।

5.पूर्वजों के नाम पर , कोई भी सामाजिक कृत्य जैसे -शिक्षा दान,रक्त दान, भोजन दान, वृक्षारोपण ,चिकित्सा संबंधी दान आदि अवश्य करना चाहिए।

किस तिथि को किसका करें श्राद्ध ?

जिस तिथि को जिसका निधन हुआ हो उसी दिन श्राद्ध किया जाता है। यदि किसी की मृत्यु प्रतिपदा को हुई है तो उसी तिथि के दिन श्रद्धा से याद किया जाना चाहिए । यदि देहावसान की डेट नहीं मालूम तो फिर भी कुछ सरल नियम बनाए गए हैं। पिता का श्राद्ध अष्टमी और माता का नवमी पर किया जाना चाहिए। जिनकी मृत्यु दुर्घटना, आत्मघात या अचानक हुई हो , उनका चतुदर्शी का दिन नियत है। साधु- सन्यासियों का श्राद्ध द्वादशी पर होगा। जिनके बारे कुछ मालूम नहीं , उनका श्राद्ध अंतिम दिन अमावस पर किया जाता है जिसे सर्वपितृ श्राद्ध कहते हैं।

कौन कौन कर सकता है श्राद्ध कर्म ?

पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है। पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में संपिंडों को श्राद्ध करना चाहिए। एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है। पुत्री का पति एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं। पुत्र के न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं।

पुत्रए पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है। पत्नी का श्राद्ध व्यक्ति तभी कर सकता हैए जब कोई पुत्र न हो। पुत्रए पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध कर सकता है। गोद लिया पुत्र भी श्राद्ध का अधिकारी माना गया है।

पितृपक्ष के पखवाड़े मंे स्त्री एवं पुरुष दोनों को ही सदाचार एवं ब्रहमचर्य का पालन करना चाहिए।

यह एक शोक पर्व होता है जिसमें धन प्रदर्शन, सौंदर्य प्रदर्शन से बचना चाहिए। फिर भी यह पक्ष श्रृद्धा एवं आस्था से जुड़ा है। जिस परिवार में त्रासदी हो गई हो वहां स्मरण पक्ष में स्वयं ही विलासिता का मन नहीं करता।अधिकांश लोग पितृपक्ष में शेव आदि नहीं करते अर्थात एक साधारण व्यवस्था में रहते हैं।

श्राद्ध पक्ष में पत्तलों का प्रयोग करना चाहिए। इससे वातावरण एवं पर्यावरण भी दूषित नहीं होता ।

इस दौेरान घर आए अतिथि या भिखारी को भोजन या पानी दिए बिना नहीं जाने देना चाहिए। पता नहीं किस रुप में कोई किसी पूर्वज की आत्मा आपके द्वार आ जाएं ।

चंद्र राशि के अनुसार साधारण विधि से भी कर सकते हैं श्राद्ध

मेष: मेष राशि के जातक श्राद्ध पक्ष के दौरान रांगे की धातु से बना सिक्का पानी में प्रवाहित करें। साथ ही श्राद्ध पक्ष में प्रतिपदा के दिन अपने परिजनों के नाम से गरीबों को भोजन करवाएं।

वृषभ: वृषभ राशि के जातक श्राद्धपक्ष में किसी भी दिन बटुकभैरव मंदिर में जाकर दही-गुड़ का भोग लगाएं। पितरों के नाम से 21 बच्चों को भोजन कराकर उन्हें सफेद वस्त्र भेंट करें।

मिथुन: मिथुन राशि के जातक पितरों के नाम से श्राद्ध पक्ष में किसी भी दिन पक्षियों को बाजरा खिलाएं। उनके पानी की व्यवस्था करें। इसके साथ ही किसी सार्वजनिक स्थान पर प्याउ लगवाएं।

कर्क: पितृ दोष से मुक्ति के लिए कर्क राशि के जातक श्राद्धपक्ष के किसी भी दिन 400 ग्राम साबूत बादाम बहते पानी में प्रवाहित करें। शिवलिंग का दूध से अभिषेक करें और गरीबों को दूध चावल से बनी खीर बांटें।

सिंह: सिंह के राशि के जिन जातकों की कुंडली में पितृ दोष लगा हुआ है वे श्राद्ध पक्ष में गरीबों को यथाशक्ति सूखे अनाज का दान करें और उन्हें पीले रंग के वस्त्र भेंट करें। स्वयं प्रतिदिन तुलसी के पौधे में जल चढ़ाएं। गरीबों को सूखे अनाज का दान करें

कन्या: इस राशि के जातक पूरे श्राद्ध पक्ष के दौरान सुंदरकांड का पाठ करें और अंतिम दिन यानी सर्वपितृ अमावस्या के दिन गरीब और अनाथों को भोजन वस्त्र भेंट करें। खासकर दिव्यांगों को भोजन जरूर करवाएं।

तुला: तुला राशि के जातक पितृ दोष से मुक्ति के लिए दूध-चावल से बनी खीर और नमकीन चावल गरीबों में बांटें। 7 गरीब कन्याओं को चप्पल और छाता भेंट करें।

वृश्चिक: इस राशि के जातक पितरों के नाम से 5 गरीबों को दो रंग का कंबल या गर्म वस्त्र दान करें। उन्हें भोजन करवाएं या भरपेट भोजन करने जितना पैसा दान दें। गाय को हरा चारा खिलाएं।

धनु: धनु राशि के जातक पक्षियों के दाना-पानी का इंतजाम करें। गौशाला में चारा भेंट करें। पितरों के नाम से किसी तीर्थ स्थान में गरीबों को भोजन करवाएं। पक्षियों के दाना-पानी का इंतजाम करें

मकर: मकर राशि के जातक पितृदोष से मुक्ति के लिए श्राद्ध पक्ष में किसी भी दिन गंगाजल डले हुए पानी से नहाएं। किसी शनि मंदिर में जाकर दृष्टिहीन और दिव्यांग बच्चों या बड़ों को भोजन करवाएं।

कुंभ: कुंभ राशि के जातक पितृदोष के निवारण के लिए 11 श्रीफल लें और यदि पितरों के नाम पता है तो उनके नाम लेते हुए एक-एक श्रीफल बहते जल में प्रवाहित करें। गरीबों को पवित्र नदी के किनारे बैठाकर भोजन करवाएं।

मीन: इस राशि के जातक श्राद्ध पक्ष के किसी भी दिन गरीबों को दूध या मावे से बनी खाने की वस्तुएं भेंट करें। गाय जिसका हाल ही में बच्चा हुआ हो उसे हरा चारा खिलाएं। गौ दान भी किया जा सकता है। 

कैसे मिलता है पितरों को भोजन, श्राद्ध करने से   

अक्सर आधुनिक युग में श्राद्ध का नाम आते ही इसे अंधविश्वास की संज्ञा दे दी जाती हैं । प्रशन किया जाता है कि क्या श्राद्धों की अवधि में ब्राहमणों को खिलाया गया भोजन पित्तरों को मिल जाता है? क्या यह हवाला सिस्टम है कि पृथ्वी लोक में दिया और परलोक में मिल गया ? फिर जीते जी हम माता पिता को नहीं पूछते .........मरणेापरांत पूजते हैं! ऐसे कई प्रशन हैं जिनके उत्तर तर्क से देने कठिन होते हैं फिर भी उनका औचित्य अवश्य होता है। 

ऐसा नहीं है कि केवल हिन्दुओं में ही मृतकों को याद करने की प्रथा है, इसाई समाज में निधन के 40 दिनों बाद एक रस्म की जाती है जिसमें सामूहिक भोज का आयोजन होता है।इस्लाम में भी 40 दिनों बाद कब्र पर जाकर फातिहा पढ़ने का रिवाज है। बौद्ध धर्म में भी ऐसे कई प्रावधान है। तिब्बत में इसे तंत्र-मंत्र से जोड़ा गया है। पश्चिमी समाज में मोमबत्ती प्रज्जवलित करने की प्रथा है।   

प्राय: कुछ लोग यह शंका करते हैं कि श्राद्ध में समर्पित की गईं वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती है? कर्मों की भिन्नता के कारण मरने के बाद गतियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं। कोई देवता, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई हाथी, कोई चींटी, कोई वृक्ष और कोई तृण बन जाता है। तब मन में यह शंका होती है कि छोटे से पिंड से अलग-अलग योनियों में पितरों को तृप्ति कैसे मिलती है? इस शंका का स्कंद पुराण में बहुत सुन्दर समाधान मिलता है।  

एक बार राजा करंधम ने महायोगी महाकाल से पूछा, 'मनुष्यों द्वारा पितरों के लिए जो तर्पण या पिंडदान किया जाता है तो वह जल, पिंड आदि तो यहीं रह जाता है फिर पितरों के पास वे वस्तुएं कैसे पहुंचती हैं और कैसे पितरों को तृप्ति होती है?'   

भगवान महाकाल ने बताया कि विश्व नियंता ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि श्राद्ध की सामग्री उनके अनुरूप होकर पितरों के पास पहुंचती है। इस व्यवस्था के अधिपति हैं अग्निष्वात आदि। पितरों और देवताओं की योनि ऐसी है कि वे दूर से कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा ग्रहण कर लेते हैं और दूर से कही गईं स्तुतियों से ही प्रसन्न हो जाते हैं।

वे भूत, भविष्य व वर्तमान सब जानते हैं और सभी जगह पहुंच सकते हैं। 5 तन्मात्राएं, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति- इन 9 तत्वों से उनका शरीर बना होता है और इसके भीतर 10वें तत्व के रूप में साक्षात भगवान पुरुषोत्तम उसमें निवास करते हैं इसलिए देवता और पितर गंध व रसतत्व से तृप्त होते हैं। शब्द तत्व से तृप्त रहते हैं और स्पर्श तत्व को ग्रहण करते हैं। पवित्रता से ही वे प्रसन्न होते हैं और वे वर देते हैं।

पितरों का आहार है अन्न-जल का सारतत्व- 

जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार तृण है, वैसे ही पितरों का आहार अन्न का सारतत्व (गंध और रस) है। अत: वे अन्न व जल का सारतत्व ही ग्रहण करते हैं। शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं रह जाती है।   

किस रूप में पहुंचता है पितरों को आहार?   

नाम व गोत्र के उच्चारण के साथ जो अन्न-जल आदि पितरों को दिया जाता है, विश्वदेव एवं अग्निष्वात (दिव्य पितर) हव्य-कव्य को पितरों तक पहुंचा देते हैं। यदि पितर देव योनि को प्राप्त हुए हैं तो यहां दिया गया अन्न उन्हें 'अमृत' होकर प्राप्त होता है। यदि गंधर्व बन गए हैं, तो वह अन्न उन्हें भोगों के रूप में प्राप्त होता है। यदि पशु योनि में हैं, तो वह अन्न तृण के रूप में प्राप्त होता है। नाग योनि में वायु रूप से, यक्ष योनि में पान रूप से, राक्षस योनि में आमिष रूप में, दानव योनि में मांस रूप में, प्रेत योनि में रुधिर रूप में और मनुष्य बन जाने पर भोगने योग्य तृप्तिकारक पदार्थों के रूप में प्राप्त होता है। 

जिस प्रकार बछड़ा झुंड में अपनी मां को ढूंढ ही लेता है, उसी प्रकार नाम, गोत्र, हृदय की भक्ति एवं देश-काल आदि के सहारे दिए गए पदार्थों को मंत्र पितरों के पास पहुंचा देते हैं। जीव चाहें सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों न कर गया हो, तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।  

वैज्ञानिक दृष्टिकोण 

मान्यता है कि मृत आत्माएं] सूक्ष्म शरीर धारण कर लेती हैं और हमारे ब्रहमांड में विचरण करती रहती हैं। एक निर्धारित समय में वे कहीं न कहीं किसी न किसी रुप में जन्म ले लेती हैं। जो आत्माएं जन्म नहीं लेती वे आकाश में रहती हैं जिसे ईथर भी कहा जाता है। और जब सूर्य कन्या राशि में आता है। वे पृथ्वी के सबसे निकट आ जाती हैं। ऐसे सूक्ष्म शरीर केवल वाष्प ग्रहण कर सकते हैं, भोजन नहीं। इसी लिए श्राद्ध पक्ष में ऐसी आत्माओं को जिन्हें पित्तर कहा जाता है, उन्हें जल अर्पित किया जाता है अर्थात अंजलि दी जाती है।

किसी दूसरे जीवित शरीर के माध्यम से उन्हें सांकेतिक रुप मंे भोजन अर्पित किया जाता है। प्रशन उठता है कि हमारे पूर्वज तो कहीं न कहीं कई जन्म ले चुके होते हैं। यह भी आवश्यक नहीं है कि उन्हें मानव यानि ही पाप्त हुई हो ! यहां बात हमारे संस्कारों और अपने पूर्वजों के प्रति श्रृद्धा व्यक्त करने की है जिसे हम श्राद्ध कहते हैं।

 
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