जैसे ही वसंत आता है, उपकार फिल्म का प्रसिद्ध गीत -‘पीली पीली सरसों फूली, पीली उड़े पतंग, अरे पीली पीली उड़े चुनरिया, पीली पगड़ी के संग’, भी खेतों का दृश्य लेकर मन मस्तिष्क में तैरने लगता है।
यह कैसा लोकतंत्र है? मतदाता 'राजा' होकर भी भिखारी बन गया और प्रतिनिधि नौकर होकर भी राजे बन बैठे। खून-पसीना एक करके जिस बंजर भूमि को अनाज उगाने लायक बनाया, भला उसको पूंजीपतियों के हाथ में कैसे सौंप दें? बस इतनी- सी बात भी हमारे नेताओं की समझ में नहीं आ रही।
सर्द रातों में खेतों को पानी देना आसान काम नहीं है। इस सारी मशक्कत में धरतीपुत्र कब बीमार होता है, कब मर जाता है, इतना सोचने का समय भी उनके पास नहीं होता। अब सवाल उठता है कि मिट्टी के साथ मिट्टी होने वाला यह इंसान क्या सम्मान भरी जिंदगी का हकदार नहीं?
आजकल जब टी वी ऑन करते ही देश का लगभग हर चैनल "सुशांत केस में नया खुलासा" या फिर "सबसे बडी कवरेज" नाम के कार्यक्रम दिन भर चलाता है तो किसी शायर के ये शब्द याद आ जाते हैं, "लहू को ही खाकर जिए जा रहे हैं, है खून या कि पानी,पिए जा रहे हैं।"
अटल सच्चाई यह है कि कोई मरना नहीं चाहता। जब तक कि उसके जीने के सारे रास्ते बंद ना हो जाएं। मुसीबतों से घिर जाने पर बहुत से लोग आत्महत्या के बारे में सोचते हैं किंतु उस अंधेरे में जैसे ही उन्हें प्रकाश या कहें कि आशा की एक किरण दिखाई देती है तो मरने का विचार पल भर में उड़न छू हो जाता है।
नि:संदेह भारतीय न्याय व्यवस्था में अनेकों झोल हैं जिस का सहारा लेकर अपराधी व्यक्ति अक्सर कानून के हाथ से बच जाता है। किंतु उस न्याय व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण पाया पुलिस तंत्र ही है।