अखिलेश बंसल/कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश)।
वीरवार को भूमि वंश राजपूतों के कटोच वंश कांगड़ा पीढ़ी के 489वें कटोच महाराजा ऐश्वर्या चंद्र कटोच का राजतिलक हुआ। इस समारोह का आयोजन हिमाचल प्रदेश स्थित ऐतिहासिक कांगड़ा किले में शानो-शौकत से हुआ।
प्राचीन संस्कृति से हुई समारोह की शुरुआत
कांगड़ा के किले में पहुंचने पर ढोल नगाडों के साथ महाराजा ऐश्वर्या चंद्र कटोच का स्वागत किया गया। जहां महाराजा ऐश्वर्या चंद्र कटोच ने हवनयज्ञ में भाग लिया। यज्ञ में आहुतियां डालने के बाद विधिवत रूप से पूजा अर्चना की। राजतिलक आरंभ करने से पूर्व ब्राह्मणों द्वारा विधिवत रूप से मंत्रों का उच्चारण व शंखनाद किया गया। परंपरागत कटोच वंश के राजा ऐश्वर्य कटोच ने अंबिका माता मंदिर में पूजा-अर्चना की। उपरांत राजस्थान के बिजापुर रियासत के राजा उदय सिंह ने अपने कर कमलों से 489वें कटोच महाराजा ऐश्वर्या चंद्र कटोच का राजतिलक किया।
सभ्यतानुसार संतरी रंग को दिया महत्व
नए राजा को गद्दी पर आसीन करने का यह सारा कार्यक्रम पहाड़ों के अभेद दुर्ग माने जाने वाले ऐतिहासिक कांगड़ा किले में हुआ। इस कार्यक्रम में कटोच पुरुष संतरी रंग की पगड़ी और महिलाएं संतरी रंग के दुपट्टे ओढ़कर शामिल हुईं। इस राजतिलक में दूसरे राज्यों के महाराजा भी सम्मिलित हुए। राज तिलक समारोह के बाद महाराजा ऐश्वर्या चॉंद कटोच, सुमेर सिंह कटोच और जसमेर सिंह कटोच द्वारा लिखित पुस्तक *कटोच :द त्रिगर्थ एंपायर* का अधिकारिक रूप से विमोचन किया गया। महाराजा के अभिषेक के साथ शैलजा कुमारी कटोच को महारानी और उनके बेटे अंबिकेश्वर चंद कटोच को टिक्का राज के रूप में मान्यता दे दी गई है।
अरब सागर रण से तिब्बत की सीमा तक है साम्राज्य
राजस्थान से पहुंचे हुए बिजापुर रियासत के राजा उदय सिंह के अनुसार राज्यों के कटोच महाराजा दुनिया में सबसे लंबे समय तक जीवित रहने वाले शाही राजवंश का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनका साम्राज्य अरब सागर के कच्छ के रण से लेकर के हिमालय में तिब्बत की सीमा तक फैला हुआ है। कटोच राजा का उस समय के हैं जब देवताओं का हमारे इतिहास में बहुत अधिक हिस्सा था और कटोच कारनामों का विवरण रामायण और महाभारत पुराणों में भी दर्ज है।नए राजा को गद्दी पर आसीन करने का यह सारा कार्यक्रम पहाड़ों के अभेद दुर्ग माने जाने वाले ऐतिहासिक कांगड़ा किले में हुआ। इस कार्यक्रम में कटोच पुरुष संतरी रंग की पगड़ी और महिलाएं संतरी रंग के दुपट्टे ओढ़कर शामिल हुईं। इस राजतिलक में दूसरे राज्यों के महाराजा भी सम्मिलित हुए। राज तिलक समारोह के बाद महाराजा ऐश्वर्या चॉंद कटोच, सुमेर सिंह कटोच और जसमेर सिंह कटोच द्वारा लिखित पुस्तक *कटोच :द त्रिगर्थ एंपायर* का अधिकारिक रूप से विमोचन किया गया। महाराजा के अभिषेक के साथ शैलजा कुमारी कटोच को महारानी और उनके बेटे अंबिकेश्वर चंद कटोच को टिक्का राज के रूप में मान्यता दे दी गई है।
280वें राजा का पोरस भारत में सिकंदर की उन्नति को रोकने में सफल रहे और युद्ध के बाद सिकंदर के सहयोगी राजा के राज्य तक्षशिला पर कब्जा कर लिया। सम्राट अकबर ने कटोच की विशेष स्थिति को मान्यता दी जिसके 464वें राजा का धर्म चंद कटोच द्वितीय महाराजा की उपाधि पाने वाले पहले व्यक्ति बने। बाद में इस शीर्षक की पुष्टि सानद द्वारा ब्रिटिश वायसराय ने भी की थी।
इतिहास में कई बार कांगड़ा के शासकों ने राजा नाका मां अंबिका देवी से, धर्म रक्षक, त्रिगर्थ, मियां बड़ा और छत्रपति नरेश जैसी उपाधि प्राप्त की। लघु चित्रों के लिए प्रसिद्ध कांगड़ा को देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है। त्रिगर्थ साम्राज्य के शासकों ने यहां 3000 से अधिक मंदिरों का निर्माण करवाया। जो एक बार अपने 282 रक्षात्मक घेरों के साथ अजेय था।
कटोच राजवंश का यह बताया इतिहास
कटोच राजवंश की प्राचीनता इतिहास पौराणिक कथाओं और अलिखित इतिहास के समय से जब हिंदू देवी-देवता हमारी दुनिया में आते थे। कटोच राजवंश लोककथाओं का हिस्सा रहा है और इसने हमारे सभी महान हिंदू महाकाव्यों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
आधुनिक समय के विद्वानों और इतिहासकारों ने रॉयल कटोच राजवंश को 10,000 ईसा पूर्व का बताया। इतिहास में मंगोलियाई इतिहासकारों ने दावा किया है कि उनके क्षेत्र को लगभग 8,000 साल पहले कटोच राजकुमार, राजकुमार मंगल देव कटोच ने बसाया था। सभी हिंदू महाकाव्यों और पुराण शास्त्रों में कटोच राजवंश और उनके योद्धाओं का उल्लेख है। कटोच साम्राज्य जो कभी पाकिस्तान के मुल्तान से लेकर जालंधर, वर्तमान के लाहौर, होशियारपुर कांगड़ा सहित स्पीति घाटी तक फैला हुआ था।
महान राजा पोरस, जिसने हमारी मान्यता के अनुसार मैसेडोनिया के सिकंदर को हराया था, कटोच वंश का राजा था। कटोच राजवंश ने भारत में आने वाले हर आक्रमणकारी से लड़ाई लड़ी, राजवंश की ऐसी बहादुरी थी कि उन्होंने मुगल तैमूर का भीमबेर घाटी तक पीछा किया। 3,000 बहादुरों की कटोच सेना ने मोहम्मद बिन तुगलक की एक लाख मजबूत सेना को हरा दिया। समय के साथ-साथ राजवंश ने मुगलों और अंग्रेजों से तलवारें खींचे जाने के बावजूद कई महत्वपूर्ण मील के पत्थर और खिताब हासिल किए।
गौरतलब है कि मेवाड़ ने 1615 में मुगलों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था, लेकिन कांगड़ा के कटोच साम्राज्य को 1620 में जहांगीर द्वारा क्रूर बल द्वारा लिया जाना था। यहां तक कि अंग्रेजों को भी 1847 में बलपूर्वक कांगड़ा पर कब्जा करना पड़ा था। भारतीय विद्रोह से 10 साल पहले और भारत की आजादी से 100 साल पहले की बात है।
1847 के बाद इस क्षेत्र में प्रमुखता हासिल करने के लिए महाराजा कर्नल अजय कटोच द्वारा कई राजनीतिक पैंतरेबाजी की गई। उन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध के लिए डोगरा रेजीमेंट कांगड़ा मशीनीकृत डिवीजन को खड़ा किया और अफगानिस्तान में दोष सफल मिशन का नेतृत्व भी किया। अंग्रेजों ने उनके प्रयासों और उनकी प्राचीन विरासत को पहचाना। लार्ड रीडिंग ने वंशानुगत पदवी के रूप में राजा और फिर महाराजा की उपाधियों की फिर से पुष्टि की।
1970 में स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार द्वारा आधिकारिक उपाधियों को समाप्त कर दिया गया था। कोई भी सरकार या प्राधिकरण नियमों को बदल सकता है और खिताब और विशेषाधिकार जैसी चीजें ले सकता है लेकिन वे हमारी विरासत, संस्कृति और परंपराओं को नहीं छीन सकते हैं। इस परंपरा को ध्यान में रखते हुए रॉयल कटोच राजवंश धर्म रक्षक राजा नाका दिव्य राजा और हिंदू धर्म के रक्षक की उपाधियों का उपयोग करना जारी है, जो उन्हें उनकी कुलदेवी मां अंबिका द्वारा दी गई थी।
कुछ वर्ष पहले ही क्षतिग्रस्त हुआ था किला भूकंप से
भारत के इस सबसे बड़े पहाड़ी किले को अंततः किसी आक्रमणकारी ने नहीं बल्कि 1905 के भूकंप ने गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त कर दिया था।