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संपादकीय

क्या सुप्रीम कोर्ट सिर्फ रसूखदारों की सुनती है आम जनता की नहीं?

May 02, 2020 12:33 PM

चंडीगढ, संजय मिश्रा:

सुप्रीम कोर्ट पर ये आक्षेप लगते रहे हैं कि वहां सिर्फ रसूखदारों की याचिका पर सुनवाई होती है और आम जनता की याचिकाएं तो पहली सुनवाई में ही खारिज कर दी जाती है।

अभी हाल में ही मीडिया विजिल में प्रकाशित एक रिपोर्ट अनुसार, इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में देश के जानी-मानी वक़ील इंदिरा जयसिंह ने एक सनसनीख़ेज़ बयान देते हुए कहा है कि आज के समय में सुप्रीम कोर्ट की स्थिति एक ज्वालामुखी की तरह है।
http://www.mediavigil.com/news/event/supreme-court-is-like-valcano-indira-jaisingh/

‘रूल ऑफ लॉ- जस्टिस इन दि डॉक’ शीर्षक से आयोजित इस सत्र में वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने इंदिरा जयसिंह से पूछा कि क्या देश की न्यायपालिका में बेंच फिक्सिंग हो सकती है? जवाब में इंदिरा जयसिंह ने कहा कि भ्रष्टाचार केवल पैसे का ही नहीं होता, हम ऐसे देश में रहते हैं जहाँ न्यायपालिका और कार्यपालिका अलग-अलग कार्य करते हैं, बिना किसी की सीमा में हस्तक्षेप किये हुए।

रोस्टर प्रक्रिया के तहत के तहत पर्दे के पीछे निश्चित किया जाना कि कौन सा केस कौन सा जज सुनेगा, यह भी भ्रष्टाचार के तहत ही आता है। “हां बेंच फिक्सिंग हकीकत है” और इसके जरिए कोर्ट के फैसलों को प्रभावित करने की कोशिश की जाती है। इंदिरा जयसिंह ने कहा कि जजों की नियुक्त करते समय ही राजनीति की जाती है और ऐसे लोगों को जज बनाया जा सकता है जिनके तहत मामलों में फैसलों को अपने पक्ष में प्रभावित किया जा सके।

इंदिरा जयसिंह ने आगे कहा कि सुप्रीम कोर्ट की स्थिति एक ज्वालामुखी की तरह है। जब देश की सबसे बड़ी अदालत के चार जज जनता के सामने जाकर कहे कि न्याय व्यवस्था में सब कुछ ठीक नहीं है तो समझ लीजिए कि लोकतंत्र खतरे में है। स्वतन्त्र प्रेस और स्वतंत्र न्यायपालिका के बिना देश को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट के कार्यकलापों पर कई अधिवक्ताओं ने अपनी नाराजगी जाहिर की है और कहा कि सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ जजों के रिश्तेदार वकीलों के या फिर हाई प्रोफ़ाइल वाले रसूखदारों के मुक़दमे ही सुने जाते है और 90% याचिकाओं को पहली सुनवाई में ही बिना कोई कारण बताए खारिज कर दी जाती है चाहे उन मामलों में कोई महत्वपूर्ण कानूनी पहलू ही क्यों ना छुपा हुआ हो।

सुप्रीम कोर्ट के कार्यकलापों पर कई अधिवक्ताओं ने अपनी नाराजगी जाहिर की है और कहा कि सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ जजों के रिश्तेदार वकीलों के या फिर हाई प्रोफ़ाइल वाले रसूखदारों के मुक़दमे ही सुने जाते है और 90% याचिकाओं को पहली सुनवाई में ही बिना कोई कारण बताए खारिज कर दी जाती है चाहे उन मामलों में कोई महत्वपूर्ण कानूनी पहलू ही क्यों ना छुपा हुआ हो।

ध्यान देने वाली बात ये भी है कि पहली सुनवाई में ही खारिज होने वाली याचिकाओं में ये भी नहीं बताया जाता है कि अदालत कैसे इस नतीजे पर पहुंची की ये मामला ख़ारिज करने योग्य है?

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण से भी कोर्ट रूम में कई बार तीखी बहस हुई। हाल फिलहाल की ही बात है, प्रवासी मजदूरों को घर वापस भेजने की जनहित यचिका खारिज होने पर प्रशांत भूषण ने कहा कि उनका विश्वास कोर्ट से उठता जा रहा है, तो जस्टिस गवई ने कहा जब आपको कोर्ट में विश्वास ही नहीं है तो कोर्ट आपको क्यों सुने? जबकि प्रशांत भूषण का कहना था कि सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार के स्टेटमेंट को आंख मूंदकर स्वीकार कर लेती है और याचिका खारिज कर देते हैं। हालांकि अब सरकार ने खुद ही तेलंगाना सहित अन्य राज्यों से बिहार झारखंड के लिए स्पेशल ट्रेन चलाकर मजदूरों को उनके घर पहुंचने का काम शुरू कर दिया है जो कि समय की एक मांग भी थी लेकिन कोर्ट ने इस मामले को खारिज कर यही संदेश दिया कि सरकार अपनी मर्जी से जो करे जब करे, कोर्ट उनको कोई आदेश नहीं देगा।

https://www.timesnownews.com/india/article/sc-slams-prashant-bhushan-for-regularly-insulting-apex-court-its-judges/583727

यही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में आमजन का हथियार सूचना अधिकार अधिनियम को भी मजबूत होने से रोक दिया। यूं तो सूचना अधिकार को कोर्ट ने संविधानिक मौलिक अधिकारों का एक पार्ट माना है लेकिन कोर्ट ने इस महत्वूर्ण अधिकारों की कमान नॉन जुडिशल मेंबर के हाथों में छोड़ दिया है।

नामित शर्मा बनाम भारत सरकार के मामले में सूचना आयोग में न्यायिक मेंबर के नियुक्ति की जरूरत मानी गई थी और आदेश भी जारी किए गए लेकिन भारत सरकार बनाम नामित शर्मा केस में कोर्ट ने सरकार के याचिका से पूर्ण सहमति जताते हुए अपने ही फैसले को पलट दिया।

जब सूचना अधिकार कानून की दुर्दशा पूरे देश में चरम पर थी तो सूचना अधिकार आवेदकों को उपभोक्ता मानने एवम् इस सेवा में कमी की शिकायत उपभोक्ता मंच में सुने जाने की याचिका भी सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी वो भी पहली सुनवाई में बिना कोई ठोस कारण बताए कि सूचना अधिकार आवेदक जो सूचना के लिए फीस एवम् लागत भुगतान करता है वो उपभोक्ता कैसे नहीं है और अतिरिक्त उपचार के जो अधिकार अन्य सभी उपभोक्ताओं को मिली हुई है वो सूचना अधिकार आवेदक को क्यों नहीं मिल सकती ?
(SLP No. 23903 ऑफ 2016 dismissed on 29-8-2016).

सरकार के साथ सुप्रीम कोर्ट का यही सॉफ्ट रवैया कमोबेश तब भी था जब चीफ जस्टिस श्री रंजन गोगोई थे और आज उनका राज्य सभा में सांसद के तौर पर नॉमिनेशन इसी सॉफ्ट रवैये का ईनाम माना जा रहा है।

अधिकतर वरिष्ठ वकीलों का यह मानना है कि खंडपीठ से दुश्मनी उनकी खुद की तरक्की के रास्ते में रोड़ा बन सकती है। इसलिए वे जुबान बंद रखने में ही अपनी भलाई समझते हैं। और मानहानि के डर से मीडिया भी न्यापालिका की रिपोर्टिंग करते वक्त अतिरिक्त एहतियात बरतने है।

जस्टिस दीपक मिश्रा पर पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण ने भी इस हेडलाइन के साथ एक लेख लिखा था कि “क्या कोई गंभीर नैतिक खामी के बावजूद भी भारत का मुख्य न्यायधीश बन सकता है?”
लेकिन अधिकतर कानूनी बिरादरी– जैसे न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका – ने न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर वही किया जो वह अक्सर करती है, यानी, चुप्पी साधे रखी।

उच्चतम पद पर जस्टिस दीपक मिश्रा के कार्यकाल के दौरान, सुप्रीम कोर्ट की सभी खंडपीठों के काम करने के तौर-तरीके अब संदेह के घेरे के बाहर नहीं रह गए थे जहां न्याय होता भी दिखता था उसे भी न्याय होते हुए नहीं देखा जाता। इतिहास में आज तक किसी मुख्य न्यायाधीश ने इस संस्था पर इतनी गहरी अंधेरे की चादर नहीं डाली थी।

जस्टिस मिश्रा के तहत और उससे पहले, जस्टिस खेहर के बाद से कार्यपालिका और मुख्य न्यायाधीश के बीच का तनाव सार्वजनिक रूप से सामने नहीं आया है और न्यायालय ने भी कई राजनैतिक रूप से संवेदनशील मामलों को या तो खारिज कर देने का काम किया है या उन्हें अनिश्चितकाल के लिए मुल्तवी कर दिया।

बहुसंख्यक सरकार की दादागिरी के आगे सुप्रीम कोर्ट का दंडवत प्रणाम की मुद्रा में झुक जाने का पर्दाफ़ाश दूसरी बार हो रहा है। 2005 के चर्चित शोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस की सुनवाई करने वाले जस्टिस लोया की मौत नागपुर में कथित रूप से ह्रदयगति रुक जाने के कारण हुई। वे वहां अपने एक साथी की बेटी की शादी में शामिल होने के लिए गए हुए थे। उनकी जगह जो जज आए उन्होंने महज तीन दिन की सुनवाई के बाद ही अमित शाह को बा-इज्जत बरी कर दिया। जब जज लोया के परिवार ने इस मामले की जांच किए जाने की गुहार लगाते हुए दो याचिकाएं दायर की एक नागपुर स्थित खंडपीठ के समक्ष तथा दूसरी मुंबई में। मुंबई वाली याचिका की सुनवाई 12 जनवरी 2018 को होनी थी। उससे एक दिन पहले जांच की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट में भी एक याचिका दायर की गई।

जस्टिस मिश्रा ने इस याचिका पर सुनवाई के लिए अरुण मिश्रा की अगुवाई वाली खंडपीठ को यह मामला सौंप दिया। अरुण मिश्रा को भाजपा का करीबी माना जाता है। उन्होंने यह मामला 12 जनवरी की सुबह सुना और अंततः याचिका खारिज कर दी। ये वो दौर था जब सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहे थे, जिसे अपने मृत जजो को न्याय देना गंवारा नहीं था वहां आम जनता न्याय की उम्मीद कैसे करती।

न्यायपालिका पूरी तरह से कार्यपालिका के अधीन हो गई है ऐसा तब महसूस हुआ जब अप्रैल 2018 में केंद्र सरकार ने कॉलेजियम से उत्तराखंड हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के.एम. जोसफ को सुप्रीम कोर्ट में भेजे जाने की सिफारिश पर पुनर्विचार के लिए कहा क्योंकि 2016 में जोसफ ने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के केंद्र के फैसले को खारिज कर दिया था, जिससे केंद्र सरकार चिढ़ गई थी। कुछ सदस्यों के विरोध के बावजूद, जस्टिस मिश्रा की अगुवाई वाले कॉलेजियम ने अपनी सिफारिशें सरकार को दुबारा से नहीं भेजी ।
जूनागढ़ से जय प्रकाश अपने प्रतिक्रिया में कहते है-
अगर उपरोक्त वास्तविकता है, तो देश के लोकतंत्र का भविष्य खतरें में है। अगर न्यायपालिका की यह अवस्था बहुत ही चिंता वाली बात है। क्योंकि आज भी लोग न्याय व्यवस्था पे भरेसा करते है की उन्हें न्याय मिलेगा।

एक अन्य पाठक किशन बुशहरी कहते हैं कि देश की न्याय व्यवस्था पूर्ण रूप से चरमरा चुकी है। वर्तमान परिपेक्ष में न्याय सिर्फ ख़रीदा जा सकता है। निष्पकता के आभाव में आम जन का न्याय व्यवस्था से विश्वास पूर्ण रूप से उठ चुका है जो न्यायधीश आम जनता व प्रशासन को दिशा निर्देश देते आमजन के ऊपर कोई भी असर नहीं होता जिस कारण देश में अराजकता का वातावरण निर्मित हो रहा है।

लेकिन वक्त गुजरता है सभी का समय बदलता है। आज भी लोग जब आपस ने लड़ते हैं तो यही कहते हैं कि कोई बात नहीं हम तुमको कोर्ट में देख लेंगे, ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि उसे उम्मीद होती है कि सभी जज एक जैसे नहीं है कुछ स्वाभिमानी और खुद्दार न्यायाधीश है जो सिर्फ न्याय करते है वो न्याय जिसकी वो शपथ लेते है। इसी उम्मीद पर दुनियां चल रही है कि कोई ऐसा जज आयेगा जो इस न्याय के मंदिर की विश्वसनीयता को पुनर्स्थापित करेगा।

 
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