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संपादकीय

1 मई अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस पर विशेष : अब उन की ख़्वाब-गाहों में कोई आवाज़ मत करना, बहुत थक-हार कर फ़ुटपाथ पर मज़दूर सोए हैं

April 30, 2018 09:41 PM

जे एस कलेर

यह कहावत उन मजदूरों पर सटीक बैठती है जो दिन भर मेहनत मजदूरी करने के बाद रात की चांदनी में फुटपाथ को अपना बिस्तर समझकर दो पल आराम के लिए बिताते हैं। न कल की फिक्र न आज का सपना, न कोई समय सीमा का बंधन, बस दो वक्त की रोटी के लिए सिर पर गठरी उठाए बढ़ते जाते हैं कदम। अपनी सारी इच्छाओं को एक कोने में दबाकर आंखों को बंद करके सपने देखने से भी मना करती है।

JS KALER
  बात मजदूरों की हो रही है तो जरूरी नहीं कि मजदूर सिर्फ फुटपाथ पर जीवनयापन करने वाला व्यक्ति ही हो। मजदूरी हर इंसान करता है। फिर चाहें वह सरकारी कर्मचारी हो या फिर दो जून की रोटी के लिए काम करने वाला गरीब मजदूर।
लेकिन देश को उन्नति और प्रगति की ओर ले जाने वाले यही मजदूर होते हैं, जो अपने खून पसीने को बहाकर देश की एक ऐसी नींव खड़ी करते हैं, जो काबिले तारीफ होती है।
लेकिन जब इन्हीं मजदूरों से जानवरों की तरह काम करवाया जाने लगा, तब यही मजदूर खुद आगे आकर अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाई। जब बात नहीं बनी तो ये अनसन पर आ गए। कड़ी मसक्कत करने के बाद आखिर वो दिन आ ही गया जब इनसे मजदूरी कराने के लिए समय का निर्धारण हुआ।
क्या है मजदूर दिवस?
अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस की शुरूआत 1 मई से हुई थी। इसे ‘मई दिवस’ के नाम से भी जानते हैं। 1886 के दौरान जब अमेरिका में मजदूर संगठनों ने आठ घंटे काम करने के लिए हड़ताल पर बैठ गए तब इस हड़ताल के दौरान एक अज्ञात व्यक्ति ने शिकागो के हेय मार्केट में विस्फोटक से हमला कर दिया। हमले के दौरान पुलिस प्रसाशन ने मजदूरों पर गोलियां चलाई। जिसमें सात मजदूरों के चपेट में आने से मौत हो गई।
मजदूरों द्वारा किए जा रहे हड़ताल के दौरान हुए हमले के बाद अमेरिका ने मजदूरों के एक शिफ्ट में काम करने की अधिकतम सीमा आठ घंटे सुनिश्चित कर दी। इसके बाद से अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस 1 मई को मनाया जाने लगा। 1886 में इसकी सबसे पहले शुरुआत शिकागो से हुई थी।
वर्तमान समय में भारत समेत विश्व के ज्यादातर देशों में मजदूरों के काम करने का समय आठ घंटे ही निर्धारित किया गया है और इसके लिए कानून भई बनाया गया है।
लेकिन, आज भी फैक्ट्रियों, कारखानों प्राइवेट कंपनियों जैसी कई जगहों में मालिक मजदूरों से 12 घंटे तक काम कराकर उनका शोषण करते हैं और बदले में मेहनताने के रुप में 1500 से 2000 रुपए महीने में देकर उनकी मेहनत का मजाक बनाते हैं। इतनी मंहगाई में किस तरह से वह अपना जीवनयापन करते हैं, ये जरा उनसे पूछिए, जिन्हें अपना परिवार पालने के लिए एक-एक रुपए इकट्ठा करना पड़ता है और अगर कुछ अच्छा खाने की भी इच्छा होती है तो वह एक बार अपने परिवार वालों के मुंह की तरफ निहारते हैं और यह सोचते हैं कि अगर उतने पैसे, बचा लिए तो आगे किसी काम में आ जाएंगे।

मजदूरों के लिए बना अधिनियम –

मजदूर के लिए कौन-कौन से कानून बने हैं इस पर भी एक नजर डाल लेते हैं। हमारे देश में बंधुआ मजदूरी एक अभिशाप के समान है। देश में इसकी व्यापकता भी बढ़ती जा रही है। इस तरह की मजदूरी में काम ज्यादा और मेहनताना बेहद कम देकर मालिक मजदूरों का अपने मनमुताबिक शोषण करते हैं। अगर कोई बंधुआ मजदूरी कराता है तो यह बंधुआ मजदूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम 1976 का उल्लंघन माना जाएगा। इस अधिनियम के तहत देश में कमजोर वर्गों के साथ हो रहे शोषण को रोकना था। बंधुआ मजदूरी कराना संविधान के अनुच्छेद 23 का भी उल्लंघन माना जाता है।
मजदूरी में सबसे ज्यादा शोषण महिलाओं और बच्चों के साथ होता है। उनसे दोगुनी मेहनत कराकर उन्हें उतना पैसा भी नहीं दिया जाता है। हालांकि, कानूनी तौर पर समान कार्य हेतु समान वेतन भी दिए जाने का प्रावधान है। पर असल में ऐसा होता नहीं है।आज देश और विदेशों में बाल मजदूरी ने व्यापक रुप ले लिया है। जबकि भारत में 1986 के अंतर्गत बालश्रम निषेध और नियमन अधिनियम पारित हुआ।
इंडियन कांस्टीट्यूशन के मुताबिक देश में रहने वाले प्रत्येक नागरिक को मौलिक अधिकार दिए गए हैं। इन मौलिक अधिकारों में शोषण और अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए अनुच्छेद 23 और 24 को रखा गया है। अनुच्छेद 23 खतरनाक उद्योगों में बच्चों के रोजगार पर प्रतिबंध लगाता है। संविधान के अनुच्छेद 24 के अनुसार 14 साल के कम उम्र का कोई भी बच्चा किसी फैक्टरी या खदान में काम करने के लिए नियुक्त नहीं किया जाएगा और न ही किसी अन्य खतरनाक नियोजन में नियुक्त किया जाएगा।

वहीं बात अगर फैक्टरी कानून की करें तो 1948 के तहत 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों से अगर कोई काम करवाता है तो इसे दंडनीय माना जाएगा। अगर 15 से 18 वर्ष तक के किशोर किसी कारणवश मेहनत मजदूरी करते हैं और किसी फैक्टरी में काम करने के लिए रखे जाते हैं तो उन बच्चों के पास अधिकृत चिकित्सक का फिटनेस प्रमाण पत्र होना आवश्यक है। इस कानून में 14 से 18 वर्ष तक के बच्चों के लिए प्रितदिन दिन काम करने की कार्यावधि 4.30 घंटे तक की तय की गई है। साथ ही इनसे रात में काम करवाना किसी अपराध से कम नहीं माना जाएगा।

मजदूर दिवस की शुरुआत हुए सवा सौ साल से अधिक समय बीत चुका है। पहले की अपेक्षा ना अब उस तरह की दिक्कतें हैं और ना ही मजदूर दिवस मनाने के लिए बड़ी-बड़ी और सशक्त मजदूर यूनियन ही बची हैं। अब ज्यादातर जॉब्स भी ब्लू कलर्स से व्हाइट कलर्स में बदल चुकी हैं। इसलिए कुछ लोगों का मत है कि अब इस पर्व का कोई महत्त्व नहीं है। लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि अगर इस दिन की शुरुआत नहीं होती तो आज जिन अधिकारों का हम इतनी आसानी से इस्तेमाल करते हैं उनके बारे में सोच भी नहीं पाते और शायद आज भी कार्यालयों और फैक्ट्रियों में काम-काज की परिस्थितियां ठीक नहीं होतीं।

आज की तेज दौड़ती ज़िन्दगी में इंसान ऑफिस छोड़ देता है लेकिन काम नहीं छोड़ पाता। लाखों लोग घर पर आकर भी लैपटॉप और कंप्यूटर पर घंटों काम करते हैं। तो एक तरह से आज के व्हाइट कलर्स वर्कर्स ने कल के ब्लू कलर्स वर्कर्स की जगह ले ली हैं। ऐसे में शायद इन वर्कर्स को अपनी हिस्से की ज़िन्दगी जीने के लिए समय माँगना चाहिए…आवाज़ उठानी चाहिए और मजदूर दिवस के दिन अपनी बातों को एक मंच प्रदान करना चाहिए।
मजदूर वर्ग किसी भी समाज का अभिन्न और महत्वपूर्ण अंग होता है उन्हे सर्वथा सम्मान देना सभी का कर्तव्य है। अगर किसी जगह पर मजदूरों के साथ अन्याय हो रहा हों या उन पर अत्याचार हो रहा हों तो उस बात को सार्वजनिक करना और उस अनीति के खिलाफ आवाज़ उठाना प्रत्येक ज़िम्मेदार नागरिक का फर्ज़ है।        -जेएस कलेर जाने माने युवा पत्रकार हैं

 
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