मनमोहन सिंह
आज बात 1960 के रोम ओलंपिक की। इसी ओलंपिक में भारत ने हॉकी की दुनियां से अपनी बादशाहत खोई। लगातार सात गोल्ड मेडल जीतने का सपना टूटा। पूरे देश में मातम का माहौल था। अगर देखा जाए तो भारतीय टीम के मुकाबले पाकिस्तान, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी और स्पेन जैसी टीमें अब मजबूत हो चली थीं। 1956 के मेलबर्न ओलंपिक में भी भारत ने सेमीफाइनल में जर्मनी को 1-0 हराया था। यह गोल ऊधम सिंह ने किया। यही हाल फाइनल में पाकिस्तान के साथ हुआ। उस मैच में भी भारत रणधीर सिंह जेंटल के पेनाल्टी कॉर्नर पर किए गए एकमात्र गोल से जीत पाया। हम ने चाहे गोल्ड मेडल जीत लिया पर यह अहसास हो गया था कि हॉकी के खेल में दुनियां बहुत आगे बढ़ गई है।
रोम में कुल 16 टीमों थीं। इन्हें चार ग्रुपों में बांटा गया था। भारत के ग्रुप में डेनमार्क, हॉलैंड और न्यूज़ीलैंड की टीमें थी। जबकि पाकिस्तान के साथ ऑस्ट्रेलिया, जापान और पोलैंड को रखा गया था। भारत को अपने पूल मैच जीतने में अधिक कठिनाई नहीं हुई। हालांकि जिस तरह की हॉकी खेलने की कोशिश भारत कर रहा था वह उसका तरीका नहीं था। भारतीय हॉकी छोटे छोटे पास देकर और कलाइयों का कलात्मक इस्तेमाल करके खेली जाती थी लेकिन रोम में वे 'हिट एंड रन' के यूरोपीय स्टाइल से खेलने की कोशिश कर रहे थे। फिर भी पूल मैचों में उन्होंने डेनमार्क को 10-0 से, हॉलैंड को 4-1 से और न्यूजीलैंड को 3-0 से हरा कर पूरे अंक हासिल कर लिए। इस तरह लीग स्टेज में भारत ने 17 गोल किए और एक गोल उनके खिलाफ हुआ। पर टीम में वो तालमेल नहीं दिखा जिसके लिए वह जानी जाती थी। दूसरी तरफ पाकिस्तान ने बेहतर प्रदर्शन किया। उसने आस्ट्रेलिया को 3-0 से, पोलैंड को 8-0 से और जापान को 10-1 से परास्त किया। इस तरह उसने तीन लीग मैचों में 21 गोल किए और केवल एक गोल खाया।
भारत ने खेलने का जो स्टाइल बदला था उसका खामियाजा उसे ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ क्वार्टरफाइन में भुगतना पड़ा। भारत की फॉरवर्ड लाइन ऑस्ट्रेलिया के मजबूत डिफेंस को भेद ही नहीं पाई और मैच अतिरिक्त समय में चला गया। इस अतिरिक्त समय के छठे मिनट में आर एस भोला के पेनाल्टी कार्नर के गोल ने भारत को फाइनल में पहुंचा दिया। पाकिस्तान भी बड़ी मुश्किल से जर्मनी को 2-1 से हरा कर अंतिम चार में आया। सेमीफाइनल में भारत की टक्कर ब्रिटेन से और पाकिस्तान का मुकाबला स्पेन से था। भारत ने यह मुकाबला भी ऊधम सिंह के एक मात्र गोल से जीत लिया। पाकिस्तान भी स्पेन को 1-0 से ही हरा पाया। अब भारत और पाकिस्तान आमने सामने थे।
चरणजीत सिंह चोटिल:
इस फाइनल में भारत के सेंटरहॉफ चरणजीत सिंह चोटिल हो गए थे। उनकी उंगली की हड्डी टूट गई थी। उस समय टीम में कोई दूसरा खिलाड़ी चोटिल खिलाड़ी की जगह नहीं ले सकता था, तो देखा जाए तो इस मैच में भारत एक तरह से 10 खिलाड़ियों के साथ ही खेला।
नसीर बुंदा का गोल:
पाकिस्तान के हमले लगातार बन रहे थे चरणजीत के घायल होने से भारत की हाफलाइन बहुत कमज़ोर पड़ गई थी। न तो रक्षण हो पा रहा था और न ही हमले। इसी बीच वह ऐतिहासिक लम्हा आया जब पाकिस्तान के राइट इन हामिदी ने एक नपा तुला पास राइट आउट नूर आलम के लिए निकला। नूर ने तेजी से गेंद को झपट कर दौड़ लगाई और फुर्ती से डी में खड़े नसीर बुंदा को सटीक पास दिया। भारतीय फुलबैक जिसे नसीर के आगे होना चाहिए था वह उसके पीछे रह गया।
नसीर ने फुलबैक के काट इतना शानदार फ्लिक किया कि गोल में खड़ा शंकर लक्ष्मण जैसा गोलकीपर भी उसे नहीं रोक पाया गेंद गोलपोस्ट के बाएं छोर के नेट में जा उलझी। यह गोल खेल के 11वें मिनट में हुआ। इसके बाद भारत ने कई हमले किए पर गोल बराबर नहीं हुआ। और अंतिम सीटी बजते ही भारतीय हॉकी का इतिहास बदल गया।
1928 से लेकर ओलंपिक हॉकी में भारत की यह पहली हार थी। ओलंपिक को एक नया हॉकी विजेता मिल चुका था और पूरा देश शोक में डूब गया था। एक महान खिलाड़ी क्लॉडियस को ज़िंदगी भर यह मलाल रहा कि वो अपने चौथे और अंतिम ओलंपिक में, जिसमें वे कप्तान थे देश को गोल्ड नहीं दिल सके। उनका यह दर्द उनके साथी चरणजीत सिंह ने एक बार मुझे अपने साक्षात्कार के दौरान बताया था। (बाकी कल)