इतिहास के पन्नों से भारतीय हॉकी के 100 साल
मनमोहन सिंह
आज बात करते हैं दादा ध्यान चंद के जादू की और उन तीन ओलंपिक खेलों की जिसमें वे खेले। 1927 में फेडरेशन के बनाने के बाद भारत की हॉकी टीम सबसे पहले 1928 के एमस्टरडम के ओलंपिक खेलों में भाग लेने गई। इस की कप्तानी जयपाल सिंह को सौंपी गई। देश में इस टीम के लिए कोई उत्साह नहीं था। टीम को मुंबई बंदरगाह पर विदाई देने केवल तीन लोग आए थे। इनमें दो फेडरेशन के पदाधिकारी और एक पत्रकार था।
सबसे बड़ी बात यह थी कि कप्तान जयपाल सिंह को टूर्नामेंट के बीच से आना पड़ा और गोल्ड मेडल पिन्नीगर ने प्राप्त किया। इस ओलंपिक में भारत ने पहले मैच से अपनी धाक जमा दी। उसने ऑस्ट्रिया को 6-0 से हराया। इस मैच में ध्यानचंद ने चार गोल किए। दूसरा मैच बेल्जियम से था। इसमें भारत 9-0 से जीता। इसमें ध्यानचंद ने एक गोल किया। अब तक भारत की धाक जम चुकी थी। इसके बाद भारत ने डेनमार्क को 5-0 से और स्विट्ज़रलैंड को 6-0 से हराया।
25 मई 1928 को भारत पहली बार चैंपियन बना। इस मैच में हॉकी के जादूगर ध्यानचंद ने 2 गोल किए। इस टूर्नामेंट में भारत ने कुल 29 गोल किए जबकि उनके खिलाफ एक भी गोल नहीं हो पाया। इन 29 गोलों में से 15 गोल अकेले ध्यानचंद के थे।
इन दोनों मैचों में ध्यानचंद ने 4-4 गोल किए। भारत का अंतिम मैच नीदरलैंड्स से था इसमें भारत 3-0 से विजयी रहा और 25 मई 1928 को भारत पहली बार चैंपियन बना। इस मैच में हॉकी के जादूगर ध्यानचंद ने 2 गोल किए। इस टूर्नामेंट में भारत ने कुल 29 गोल किए जबकि उनके खिलाफ एक भी गोल नहीं हो पाया। इन 29 गोलों में से 15 गोल अकेले ध्यानचंद के थे।
चार साल बाद लालशाह बोखारी के नेतृत्व में भारत की टीम लॉस एंजिल्स गई। वहां केवल तीन ही टीमें थी। यहां भारत विश्व रिकॉर्ड बनाया जो आज तक भी कायम है। यह रिकॉर्ड था जबसे अधिक गोल करने का। यहां भारत ने जापान को 11-1 से परास्त किया। इनमें से ध्यान चंद ने 4, रूप सिंह और गुरमीत सिंह ने 3-3, और पिन्नीगर ने एक गोल किया। अगले और अंतिम मैच में भारत ने मेजबान अमेरिका को 24-1 से हरा कर नया इतिहास रचा। इनमें से ध्यानचंद ने आठ, रूपसिंह ने 10, गुरमीत सिंह ने पांच और पिन्नीगर ने एक गोल किया।
अब तक पूरी दुनियां में भारत की धाक जम चुकी थी। इसलिए 1936 में जब भारत की टीम बर्लिन पहुंची तो सभी को गोल्ड की पक्की उम्मीद थी। पर जर्मनी का तानाशाह हिटलर अपनी टीम को विजयी देखना चाहता था। उसकी यह उम्मीद और भी पक्की हो गई जब एक अभ्यास मैच में उसने भारत को 4-1 से हरा दिया। यह नतीजा भारत को भी चिंतित करने वाला था।
उसी समय वहां साथ गए पद आधिकारियों की एक बैठक हुई और एक तार फेडरेशन के अध्यक्ष सर जगदीश प्रसाद को भेज कर दारा को वायुयान से बुलाया गया क्यों कि राइट इन इम्मत ऑफ कलर थे। इसके बाद ओलंपिक में भारतीय टीम पूरी फॉर्म में आ गई। उसने पहले मैच में हंगरी को 4-0 से, अमेरिका को 7-0 से, जापान को 9-0 से और सेमीफाइनल में फ्रांस को 10-0 से और फाइनल में जर्मनी को 8-1 से हरा कर लगातार तीसरा गोल्ड भारत की झोली में डाला। इन मुकाबलों में भारत ने कुल 38 गोल किए और एक खाया। भारत की तरफ से ध्यानचंद और रूपसिंह ने 11-11, तपस्ल और दारा ने 4-4, जाफर ने 3, फर्नांडिस और शहाबुद्दीन ने 2-2, और कुलेन ने एक गोल किया।
इसके बाद 1939 में दूसरी आलमी जंग शुरू हो जाने के कारण 1940 और 1944 के ओलंपिक खेल नहीं हो सके। इसके साथ ही दादा ध्यान चंद का ओलंपिक में सफर खत्म हो गया। आज इतना ही इससे आगे की कहानी कल।