मनमोहन सिंह
मुझे कल टीवी पर 'मैदान' फिल्म देखने का अवसर मिला। बहुत ही खूबसूरत फिल्म है। अगर मैं कहूं कि खेलों पर जितनी भी फिल्में आज तक बनी हैं उनमें 'मैदान' सर्वश्रेष्ठ है तो कोई गलत न होगा। फिल्म सच्चाई के नज़दीक है कोई अधिक ड्रामेबाजी नहीं है तो ज़ाहिर है बॉक्स ऑफिस पर तो असफल ही होगी।
235 करोड़ में बनी यह फिल्म अभी तक मात्र 68 करोड़ ही कमा पाई है। हां! अगर पुरस्कारों की बात करें तो 70 वें फिल्मफेयर पुरस्कार फंक्शन में यह 13 वर्गों में पुरस्कार के लिए मनोनीत थी। इनमें अजय देवगन सर्वश्रेष्ठ कलाकार, और तुषार कांति रे सिनेमेटोग्राफर भी शामिल थे। फिल्म आलोचकों ने इसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म भी माना।
जो लोग स्पोर्ट्स में रुचि रखते हैं या देश में फुटबॉल के इतिहास का थोड़ा भी ज्ञान रखते हैं, उनके मानस पटल पर यह फिल्म गहरा प्रभाव छोड़ती है। फिल्म के निर्देशक अमित शर्मा ने बहुत मेहनत से काम किया है। निर्देशन में कोई बड़ी कमी नज़र नहीं आती। फिल्म की कहानी भारत में फुटबॉल के कोच सैयद अब्दुल रहीम की जिंदगी से जुड़ी है।
फिल्म दिल को इसलिए भी छूती है क्योंकि यह कोई काल्पनिक नहीं अपितु सत्य है। मेरे खुद के जहन में कई यादें धुंधली सी कौंध जाती हैं जब भारत ने 1962 की जकार्ता एशियाई खेलों में फुटबॉल का गोल्ड मेडल जीता था। उस समय मेरी उम्र 10 साल थी। आज 63 साल बाद भी हमें दूसरे गोल्ड मेडल का इंतज़ार है। फिल्म देख कर पता चलता है कि एक कोच को उस समय कितने अपमान झेलने पड़ते थे। फेडरेशन का हाल तब भी ऐसा ही था।
पदाधिकारी मठाधीश बन कर बैठे रहते थे। सैयद अब्दुल रहीम को लोग रहीम साहब के नाम से बुलाते थे। फिल्म की शुरुआत में ही 1952 का हेलसिंकी ओलंपिक और उसमें यूगोस्लाविया के हाथों भारत की 1-10 से हुई हार दिखाई गई है। इस हार का ठीकरा कोच रहीम साहब के सर फोड़ा गया। पर रहीम हौसला नहीं हारते और बहुत धक्के खाने के बाद वे नई टीम बनाने की इजाज़त ले पाने में सफल हो जाते हैं। वे पूरे देश का दौर कर सिकंदराबाद से तुलसीदास बलराम को, हैदराबाद से गोलकीपर पीटर थंगराज को, और बंगाल से चुन्नी गोस्वामी को टीम में जोड़ लेते हैं।
जकार्ता में टीम की शुरुआत अच्छी नहीं रहती। टीम के गोलकीपर पीटर थंगराज अभ्यास मैच में घायल हो जाते हैं। उनकी जगह प्रयदूत बर्मन को गोली बनाया जाता है पर वे काफी कमज़ोर साबित होते हैं और भारत दक्षिण कोरिया से 0-4 से हार जाता है। वैसे इस मैच का स्कोर 0-2 था पर फिल्म में 0-4 दिखाया गया है। फिल्मों में थोड़ा बहुत ऊपर नीचे होता रहता है।
हालांकि 1956 के मेलबॉर्न ओलंपिक में भारत फुटबॉल में मेजबान ऑस्ट्रेलिया को 7-1 से हराया है और चौथे स्थान पर रहता है पर उसके लिए रहीम की अधिक तारीफ नहीं होती। पर जब 1960 के रोम ओलंपिक में भारत फ्रांस, जो कि उस समय दुनियां की सर्वश्रेष्ठ टीम मानी जाती थी के साथ 1-1 से ड्रॉ खेल कर भी आगे नहीं बढ़ पाता तो रहीम को कोच पद से हटा दिया जाता है।
उधर रहीम को पता चलता है कि उन्हें गले का कैंसर हो गया है तो वे घर बैठ जाते हैं। पर उनकी पत्नी उन्हें हौसला देती है कि वे फिर से भारत की टीम को कोच करें। वे फेडरेशनके पास जाते हैं पर उन्हें अपमानित किया जाता है। पर वे कोशिश नहीं छोड़ते और अंत में उन्हें कोच बना दिया जाता है। शर्त यह है कि अगर टीम गोल्ड नहीं जीतेगी तो वे फिर दुवार कभी कोच नहीं बनेंगे। इतना होने पर भी देश का वित्त मंत्रालय टीम को भेजने से इनकार कर देता है। रहीम खुद उस समय के वित्त मंत्री मोरारजी देसाई से मिलते हैं और उन्हें कुछ शर्तों पे माना लेते हैं।
जकार्ता में टीम की शुरुआत अच्छी नहीं रहती। टीम के गोलकीपर पीटर थंगराज अभ्यास मैच में घायल हो जाते हैं। उनकी जगह प्रयदूत बर्मन को गोली बनाया जाता है पर वे काफी कमज़ोर साबित होते हैं और भारत दक्षिण कोरिया से 0-4 से हार जाता है। वैसे इस मैच का स्कोर 0-2 था पर फिल्म में 0-4 दिखाया गया है। फिल्मों में थोड़ा बहुत ऊपर नीचे होता रहता है।
खैर, अगले मैचों में भारत ने थाईलैंड को 4-1 से और जापान को भी हरा कर सेमीफाइनल में प्रवेश किया। रहीम साहब ने हर मैच में नई रणनीति बनाई। यहां तक कि दक्षिण वियतनाम के साथ सेमीफाइनल में उन्होंने घायल जरनैल सिंह को डीप डिफेंडर की जगह सेंटर फॉरवर्ड खिलाया। उनकी ये रणनीति काम आई और भारत 3-2 से जीत गया। फाइनल में भारत के सामने कोरिया था। इस बीच भारत के एक डिप्लोमेट ने ताइवान और इजरायल को ले कर इंडोनेशिया के खिलाफ कोई टिप्पणी कर दी जिस कारण पूरी भीड़ भारत के खिलाफ हो गई, भारतीय फुटबॉल टीम की बस पर भीड़ ने हमला किया लेकिन सेना ने उन्हें बचा लिया। पर रहीम साहब ने अपनी टीम का हौसला इतना बढ़ा दिया कि स्टेडियम में बैठी एक लाख की भीड़ की आवाज़ों का उन पर कोई असर नहीं पड़ा। चुन्नी गोस्वामी और सेंटर फॉरवर्ड खेल रहे जरनैल सिंह के शानदार गोलों की बदौलत भारत 2-1 से यह मैच जीत गया और बना एशियाई खेलों का चैंपियन। इसके बाद आज तक भारत को यह सम्मान नहीं मिला।
इस जीत के नौ महीने बाद सैयद अब्दुल रहीम साहब इस दुनियां को अलविदा कह गए और पीछे छोड़ गए बहुत सी यादें। सलाम है उन्हें। कल मैं बात करूंगा रहीम साहब की रणनीति पर। साथ ही क्या कहते हैं उस टीम के एक प्रमुख खिलाड़ी अरुण घोष।