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संपादकीय

पुत्रमोह मे फँसे भारतीय राजनेता एवं राजनीति, गर्त मे भी जाने को तैयार

November 12, 2019 04:58 PM

संजय कुमार मिश्रा
पिछले कुछ सालों से भारतीय राजनीति मे पुत्रमोह के कारण कई बदलाव दिख रहे है । ताजातरीन मामलों मे महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2019 में भाजपा-शिवसेना के गठबंधन ने कांग्रेस-एनसीपी के गठबंधन को हरा दिया, लेकिन अब तक सरकार नहीं बना सकी है और मामला फंसा हुआ है मुख्यमंत्री के पद को लेकर ।वैसे अब राष्ट्रपति शासन लागू हो गया है.

जहां भाजपा इस बात को लेकर अड़ी है कि पूरे 5 साल तक उनका ही उम्मीदवार यानी फडणवीस ही मुख्यमंत्री होंगे, तो शिवसेना 50-50 के फॉर्मूले की जिद कर रही है यानी ढाई साल फडणवीस मुख्यमंत्री रहें और ढाई साल आदित्य ठाकरे सीएम की कुर्सी पर बैठें ।

चूंकि इस 50-50 फॉर्मूले के चक्कर में भाजपा पहले भी दो बार धोखा खा चुकी है, इसलिए वो अब इस फॉर्मूले पर भरोसा नहीं कर पा रही है तो वहीं दूसरी ओर शिवसेना पुत्रमोह मे अपनी जिद पर अड़ी है और अब ऐसा लग रहा है कि पुत्रमोह में पड़ कर उद्धव ठाकरे एनसीपी एवं कांग्रेस के साथ मिलकर शिवसेना का वजूद तक खोने को तैयार हैं ।

इसमें कोई हैरानी नहीं है कि प्रत्येक बाप अपने बेटे की तरक्की चाहता है और जितना हो सकता है, उतनी मदद भी करता है, लेकिन भारतीय राजनीति में पुत्रमोह ने सिर्फ तबाह ही किया है ।

कई पार्टियों ने पुत्रमोह मे पड़कर काफी कुछ खोया लेकिन फिर भी पुत्रमोह से बाहर निकलने को तैयार नहीं है । आइये एक नजर इतिहास पर डालते हैं कि कैसे पुत्रमोह राजनीति पार्टियों को ले डूबी है :-

कर्नाटक की राजनीति की बात करें तो सभी जानते हैं कि जेडीएस प्रमुख और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा अपने बेटे कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाने के चक्कर में पार्टी को तबाह कर रहे हैं । पहले कुमारस्वामी ने 2004 में कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई थी फिर दो साल बाद गठबंधन तोड़कर भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई । आधे-आधे टाइम मुख्यमंत्री रहने की डील हुई लेकिन अपना टाइम पूरा कर कुमारस्वामी गठबंधन तोड़ दी । कुमारस्वामी राजनीति के धरातल पर एक कच्चा घड़ा हैं. बावजूद इसके देवेगौड़ा सिर्फ उन्हें ही आगे बढ़ाना चाहते हैं, भले ही उनकी पार्टी जेडीएस का अस्तित्व ही खतरे में क्यों ना पड़ जाए.

कांग्रेस पार्टी में हमेशा से पार्टी का मालिकाना हक गांधी परिवार के पास ही रहा है, लेकिन बीते कुछ सालों से यह साफ हो गया कि राहुल गांधी इस जिम्मेदारी को अच्छे से निभा नहीं पा रहे हैं, फिर भी उनकी जगह किसी और को सामने लाने पर विचार नहीं हो रहा है। 7-8 साल पहले तक कांग्रेस देश की सबसे बड़ी पार्टी थी और आज के समय में वह धीरे-धीरे सिमटती जा रही है लेकिन फिर भी सब राहुल गांधी को ही पार्टी का आलाकमान बनाने पर तुले हुए हैं, जबकि खुद राहुल गांधी की रुचि राजनीति में नहीं दिखती ।

कर्नाटक की राजनीति की बात करें तो सभी जानते हैं कि जेडीएस प्रमुख और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा अपने बेटे कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाने के चक्कर में पार्टी को तबाह कर रहे हैं । पहले कुमारस्वामी ने 2004 में कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई थी फिर दो साल बाद गठबंधन तोड़कर भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई । आधे-आधे टाइम मुख्यमंत्री रहने की डील हुई लेकिन अपना टाइम पूरा कर कुमारस्वामी गठबंधन तोड़ दी । कुमारस्वामी राजनीति के धरातल पर एक कच्चा घड़ा हैं. बावजूद इसके देवेगौड़ा सिर्फ उन्हें ही आगे बढ़ाना चाहते हैं, भले ही उनकी पार्टी जेडीएस का अस्तित्व ही खतरे में क्यों ना पड़ जाए.

उत्तर प्रदेश की राजनीति पर नजर डालें तो पता चलेगा कि समाजवादी पार्टी के बिखरने की वजह अखिलेश यादव हैं जिसे आगे बढ़ाने के लिए मुलायम सिंह ने पार्टी के हित का भी ध्यान नहीं रखा । इसकी वजह से उनके भाई शिवपाल यादव भी उनसे अलग हो गए ।

बिहार में लालू यादव की कभी तूती बोलती थी. भ्रष्टाचार के आरोप तो उन पर कई सालों से थे, लेकिन कोई उनका बाल भी बांका नहीं कर पाया था । साल 2015 मे नीतीश कुमार की जेडीयू ने लालू की आरजेडी ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा और भाजपा को हरा दिया । इस चुनाव में लालू के दोनों बेटे भी जीते और वादे के मुताबिक नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने तो लालू के छोटे बेटे तेजस्वी डिप्टी सीएम । यही नहीं लालू के बड़े बेटे तेज प्रताप को कैबिनेट में मंत्री पद दिया गया । अपने दोनों बेटों को राजनीति में सेट करने के चक्कर में लालू यादव ने अपनी सत्ता भी खो दी । तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और नीतीश से खटपट शुरू हुई और नीतीश ने अचानक ही लालू का साथ छोड़ भाजपा से हाथ मिलाया । अब एक ओर लालू जेल में हैं, वहीं दूसरी ओर उनकी पार्टी आरजेडी भी बिखर गई है ।

ऐसा नहीं है कि शिवसेना उपरोक्त इतिहास से अनजान है, लेकिन ये पुत्रमोह ही है जिसके चक्कर मे पड़कर शिवसेना आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने के लिए सेकुलर छवि वाली कांग्रेस और एनसीपी से हाथ मिला चुकी है जिससे बाल ठाकरे की छवि को सबसे अधिक नुकसान होगा । इतिहास गवाह है की बाल ठाकरे कभी झुकते नहीं थे, जो कह देते थे उसे कर के दिखाते थे । भाजपा तक के लिए वह कहते थे कि जो शिवसेना कहेगी, कमलाबाई (भाजपा) वही करेगी । अब अगर शिवसेना पुत्रमोह में पड़ कर अपनी विचारधारा के खिलाफ जाकर एनसीपी एवं कांग्रेश के सहयोग से सरकार बनाती है तो शिवसेना के बचे-खुचे वजूद का भी खतरे में पड़ना तय है ।

 
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