मनमोहन सिंह
बिहार चुनाव में एनडीए ने 200 का आंकड़ा पर कर लिया। इतनी बड़ी जीत की उम्मीद तो खुद एनडीए ने भी नहीं की होगी। चुनावों का आकलन करने वाले बड़े बड़े पंडित भी हैरान हैं। सब राजनेता अपने अपने तर्क दे रहे हैं।
एनडीए के लोग इसे सुशासन, महिला सशक्तिकरण, और जंगल राज से बचाने की जीत बता रहे हैं तो विपक्ष इसे वोट चोरी, महिलाओं को दस दस हज़ार देने, चुनाव आयोग की धांधली जैसे आरोप लगा रहा है। 65 लाख लोगों के नाम काटने और 14 लाख डुप्लीकेट वोटर जोड़ने के आरोप भी चुनाव आयोग पर लग रहे हैं। हो सकता है ये आरोप सही भी हों, पर विपक्ष को इससे अलग अपनी कमियों और खामियों पर भी नज़र डालनी चाहिए।
इतने बड़े चुनाव में जहां लोकतंत्र का दाव लगा हो आप ढीली लड़ाई कैसे लड़ सकते हैं? इन हालत में भी विपक्षी महागठबंधन तानाशाही विकल्प के विहीन था। उसकी वैचारिक राजनीति कमज़ोर थी। वह पूरे चुनाव में संगठनात्मक बिखरेपन का प्रदर्शन करता रहा। वोट चोरी के अलावा, जाती जनगणना, नवउदारवादी नीतियों जैसे मुद्दों को सही ढंग से उठाया ही नहीं गया। नतीजतन तथाकथित गठबंधन अपने सबसे अधिक उत्पीड़ित दलित गरीब तबकों से अलग थलग पड़ गया।
दूसरी तरफ एनडीए ने अपने पास डबल इंजिन शासन के सहारे हिंदुत्व की आक्रामकता के साथ साथ मुफ्त की रेवड़ी, दान- दक्षिणा और मुख्यमंत्री महिला रोज़गार योजना को आगे बढ़ा कर उत्पीड़ित जातियों को अलग अलग साधते हुए परिस्थितियों को अपनी ओर मोड़ लिया। सबसे शर्मनाक और नुकसानदेह रहा महागठबंधन के घटक दलों के बीच सीट बंटवारे को लेकर खुली फूट। व्यक्तिगत और अवसरवादी लाभ के लिए "दोस्ताना मुकाबला" और अंतर कलह ने काम और खराब कर दिया।
जहां एक व्यापक फासीवाद विरोधी एकता की और न्यूनतम कार्यक्रम की जरूरत थी वहां महागठबंधन के घटक अपनी अपनी पसंद और प्राथमिकता के आधार पर प्रचार कर रहे थे। नतीजा यह हुआ कि अनुकूल हालत के बावजूद विपक्ष प्रभावशाली फासीवाद विरोधी चुनावी हमला करने में विफल रहा। यह चुनाव विपक्ष के लिए खास तौर पर वामपंथी पार्टियों के लिए एक सबक है। उन्हें अपनी समझ और नजरिए को नए सिरे से व्यवस्थित करने की ज़रूरत है।