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कविताएँ

इक साथ चले हैं मंज़िल को

September 26, 2025 09:05 AM

इक साथ चले हैं मंज़िल को

मंज़िल को पा कर आएंगे

इक नया सवेरा लाना है
इक नया सवेरा लाएंगे

अधिकार की ख़ातिर लड़ना भी
हो जाता है इक दिन लाज़िम है
देश की ख़ातिर मरना भी
हो जाता है इक दिन लाज़िम है
जब तक सांस चले साथी
हम यूं ही लड़ते जाएंगे
इक साथ चले..........

भूख ग़रीबी की ये लानत
हम सब पर अब भारी है
दुनियां के बाज़ारों में
बिक रही अब नारी है
जब तक भूख रहे जग में
हम तख्तों से टकराएंगे
इक साथ चले.....

ख़ून खराब होता है
हर दम मज़हब के नाम पर
मज़लूम यहां पर मरते हैं
हर दम मज़हब के नाम पर
मज़हब की इन दीवारों को
सबसे पहले गिरवाएंगे
इक साथ चले.....

ऐ ज़ालिम तेरी रग रग में
झूठ, दगा, मक्कारी है
ये तख़्त- ओ- ताज नहीं तेरा
अपनी भी हिस्सेदारी है
इक दिन दिल्ली की गद्दी पर
मज़दूरों को बिठलाएंगे
इक साथ चले ...

इश्क मुहब्बत की शायरी
बहुत हुई अब जाने दो
फूलों कलियों की शायरी
बहुत हुई अब जाने दो
अपनी ग़ज़लों नज़्मों से
अब तो शोले बरसाएंगे

इक नया सवेरा लाना है
इक नया सवेरा लाएंगे
इक साथ चले हैं मंज़िल को
मंज़िल को पा कर आएंगे
इक नया सवेरा लाना है
इक नया सवेरा लाएंगे

-- मनमोहन सिंह 'दानिश'

(दुनियां के हर मेहनतकश को समर्पित)

 
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