ग़ज़ल
ज़िंदगी तो बस रजाई तक सिमट के रह गई
गीत ग़ज़लों या रुबाई तक सिमट के रह गई
दोस्तों से गुफ्तगू महदूद है बस काम तक
या कि बच्चों की पढ़ाई तक सिमट के रह गई
है शफाखाना ज़रूरी आज घर के पास में
उम्र ये अब तो दवाई तक सिमट के रह गई
अब बगावत का कहीं दिखता नहीं नाम- ओ- निशां
ये तो लेखक की लिखाई तक सिमट के रह गई
हूं अकेला चुप पड़ा इक खाट पर देखो मुझे
ज़िंदगी जाम- ओ- सुराही तक सिमट के रह गई
-- मनमोहन सिंह 'दानिश'