ग़ज़ल
खुद ही रूठे, खुद ही माने, खुद से ही तकरार किया
कौन मुहब्बत करता हम से खुद अपने से ही प्यार किया
तेरे ग़म में रोया जब भी रातों को वीरानों में
मेरे अश्क गिरे जिस पर उस ज़र्रे को गुलज़ार किया
याद तेरी जब भी आई सोया नहीं मैं रातों को
तस्वीर उठा तेरी हाथों में उल्फ़त का इज़हार किया
चोट सही, ज़ख्म सहे, पर होठों पर मुस्कान रही
ख़ार चुने सब गुलशन से, फूलों से इनकार किया
तेरी बातें तू ही जाने मैं तो एक मुसाफिर हूं
मैं तो हर उस दर पे ठहरा जिसने भी इसरार किया
- मनमोहन सिंह 'दानिश'
*इसरार: अनुरोध, निवेदन, आग्रह