मनमोहन सिंह
रोम में मिली हार का दर्द काफी गहरा था। लेकिन इससे भारतीय हॉकी टीम हतोत्साहित नहीं हुई बल्कि 1964 के टोक्यो ओलंपिक की तैयारी में जुट गई। अब हॉकी पर किसी एक का अधिपत्य नहीं था। ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, हॉलैंड, स्पेन जैसे देश भारत और पाकिस्तान को कड़ी टक्कर देने लगे थे।
टोक्यो में भारत की कड़ी परीक्षा हुई। पूल के मैचों पाकिस्तान का प्रदर्शन कहीं बेहतर लग रहा था। उसने अपने मुकाबलों में जापान को 1-0 से, कीनिया को 5-2 से, रोडेसिया को 6-0 से, न्यूजीलैंड को 2-0 से और ऑस्ट्रेलिया को 2-1 से मात दी। दूसरी ओर भारत की राह कठिन थी। उसने बेल्जियम को 2-0 से हराया, फिर जर्मनी के साथ 1-1 की बराबरी रही। उस समय ओलंपिक में भारत का यह पहला मैच था जो ड्रॉ हुआ था, भारत का अगला मैच स्पेन से भी 1-1 से बराबर छूटा। पर इसके बाद उसने हांगकांग को 6-0 से, मलेशिया को 3-1 से, कनाडा को 3-0 से और हॉलैंड को 2-1 से परास्त कर सेमीफाइनल में जगह बना ली। उस समय भारत के पूल में आठ और पाकिस्तान के पूल में सात टीमें थी। सेमीफाइनल में पाकिस्तान ने स्पेन को 3-0 से और भारत ने ऑस्ट्रेलिया को 3-1 से हराया।
अब टक्कर पाकिस्तान से:
फाइनल में भारत और पाकिस्तान आमने सामने थे। पाकिस्तान को अपना गोल्ड बचाना था और भारत ने अपनी साख। पिछली हार का बदला भी लेना था। मतलब यह कि दोनों के लिए " करो या मरो " वाली स्थिति थी। पाकिस्तान ने बहुत ही आक्रामक शुरुआत की। पहले दस मिनट वे भारत के इलाके पर छाए रहे। लेकिन इसके बाद भारत सम्भला और मुकाबला बराबर का चलता रहा। पहले हॉफ में कोई गोल नहीं हुआ। लेकिन दूसरे हॉफ के शुरू होते ही भारत ने हमले बोलने शुरू किए। ऐसे ही एक हमले में भारत को पेनाल्टी कॉर्नर मिल गया। पृथपाल सिंह की हिट को पाकिस्तान के पाकिस्तान के फुल बैक मुनीर ने गोल रेखा प पैर से रोक दिया। इस पर मिले पेनल्टी स्ट्रोक को मोहिंदर लाल ने गोल में बदलने में कोई गलती नहीं की। उसने शक्तिशाली पुश से गेंद पाकिस्तान गोल के बाएं कोने में डाल दी।
इसके बाद पाकिस्तान ने ताबड़तोड़ हमले तो ज़रूर किए पर शंकर लक्ष्मण को मात नहीं दे सके इस तरह जो सम्मान भारत ने रोम में खोया था उसे टोक्यो में पा लिया। पर इसके बाद कभी भी भारत और पाकिस्तान किसी भी ओलंपिक के फाइनल में एक दूजे के खिलाफ नहीं खेले।
टोक्यो के बाद जैसे भारतीय हॉकी का पतन शुरू हो गया। फेडरेशन के आपसी झगड़े और खिलाड़ियों की गुटबाजी ने भारत को बहुत नुक्सान पहुंचाया। 1968 के मैक्सिको ओलंपिक खेलों में भारत की गुटबाजी खुल कर सामने आई और पहली बार गुरबख्श सिंह और पृथपाल सिंह को टीम का संयुक्त कप्तान बनाया गया। नतीजा यह हुआ कि भारत अपना पहला पूल मैच न्यूजीलैंड 1-2 से हार गया। भारतीय हॉकी के इतिहास में किसी पूल मैच में भारत की यह पहली हार थी। फिर भी किसी तरह टीम सेमीफाइनल तक पहुंची पर वहां ऑस्ट्रेलिया से हर कर पहली बार फाइनल में पहुंचने से वंचित रही। हालांकि उसने जर्मनी को हराकर कांस्य पदक ज़रूर जीत लिया पर टीम की गिरावट साफ थी। यहां गोल्ड मेडल पाकिस्तान ने जीता।
भारत की यही स्थिति 1972 म्यूनिख में भी रही वहां भारत ने फिर कांस्य पदक हासिल किया। लेकिन इस ओलंपिक में गोल्ड मेडल जर्मनी जीत गया। उसने फाइनल में पाकिस्तान को परास्त किया। यह पहला अवसर था जब कोई यूरोपीय देश यह गोल्ड जीत सका।
1976 का मॉन्ट्रियल ओलंपिक हॉकी के खेल में बड़ा बदलाव लेकर आया। यहां पहली बार कृत्रिम मैदान एस्ट्रोटर्फ का इस्तेमाल हुआ और अजितपाल सिंह के नेतृत्व में गई भारत की टीम पूल में अपना मैच ऑस्ट्रेलिया से बुरी तरह हारी। ऑस्ट्रेलिया ने भारत पर छह गोल किए और भारत पहली बार सेमीफाइनल में नहीं पहुंचा। हालांकि 1980 के मास्को ओलंपिक में भारत ने एक बार फिर गोल्ड जीता पर उस ओलंपिक में हॉकी खेलने वाले मुख्य देश नहीं थे।
इसके बाद की कहानी हॉकी की गिरावट की कहानी है। 1984 से लेकर 2016 भारत लगातार निराशाजनक प्रदर्शन करता रहा। 1980 के गोल्ड मेडल के 40 साल बाद भारत 2020 में कांस्य पदक जीत पाया। उसने यही प्रदर्शन 2024 की खेलों में भी दोहराया। लगता है भारत फिर से हॉकी के आकाश में अपना परचम लहराने को तैयार है।