चंडीगढ, संजय कुमार मिश्रा: आपकी रिश्वत अवैध, लेकिन चुनावी बॉन्ड के रूप में मिलने वाली रिश्वत क़ानूनी रूप से वैध।
चुनावी बॉन्ड की इसी क़ानूनी वैधता पर सवाल उठाने वाली एसोसिएशन फॉर डेमॉक्रेटिक रिफॉर्म्स (ए डी आर) द्वारा दाखिल जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई और अब इसे सात मेंबर वाली संविधान पीठ को भेज दिया गया है जहाँ अब 31 अक्टूबर 2023 को इस पर सुनवाई होगी, अगर इस दिन सुनवाई में कोई कमी रह गई तो पहली नवम्बर को भी सुनवाई की जायेगी। सुनवाई के मुख्य बिंदु है - चुनावी बॉन्ड में कितनी पारदर्शिता है एवं इसे वित्त विधेयक के रूप में प्रस्तुत किया जाना कितना सही है ?
क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड?
1 फरवरी, 2017 को तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने संसद में इलेक्टोरल बॉन्ड की घोषणा की थी और दावा किया था कि इसके जरिए चुनावी चंदे में पारदर्शिता आएगी। नई व्यवस्था के तहत बड़े कारपोरेशन, ट्रस्ट, एनजीओ या फिर आम नागरिक अपनी पसंद के राजनीतिक दल को अपनी पहचान छुपाकर चंदा दे सकते हैं। इसमें यह पता नहीं चलेगा कि किस व्यक्ति ने किस राजनीतिक दल को कितना चंदा दिया। सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को लागू करने के दौरान बेहद जल्दबाजी दिखाई, इससे संबद्ध तमाम संस्थानों के विरोध को खारिज किया। सलाह-मशविरे को दरकिनार किया। आरटीआई कार्यकर्ता व एनसीपीआरआई के सदस्य सौरव दास को सूचना अधिकार अधिनियम के तहत मिले दस्तावेज़ों से यह ज़ाहिर होता है कि कैसे तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने संवैधानिक प्रावधानों की धज्जियां उड़ाते हुए इस योजना के बेहद विवादास्पद पहलुओं को धन विधेयक की श्रेणी में डाल दिया। संविधान के आर्टिकल 110 के अनुसार धन विधेयक को राज्यसभा में पारित कराने की कोई मजबूरी नहीं होती है। अब सुप्रीम कोर्ट इस बिंदु पर भी विचार करेगा की चुनावी बॉन्ड क्या धन विधेयक है?
चुनावी बॉन्ड पर किसकी क्या आपत्ति ?
भारतीय रिजर्व बैंक: आरबीआई ने 30 जनवरी, 2017 को, इलेक्टोरल बॉन्ड के विरोध में सरकार को लिखा- “चुनावी बॉन्ड और आरबीआई अधिनियम में बदलाव करने से एक गलत परंपरा शुरू हो जाएगी। इसमें मनी लॉन्ड्रिंग की आशंका है। लोगों का भारतीय मुद्रा पर भरोसा खत्म होगा और केंद्रीय बैंकिंग कानून के आधारभूत ढांचे को खतरा पैदा हो जाएगा.” इस कदम से कई गैर-संप्रभु इकाइयां धारक दस्तावेज (बेयरर इंस्ट्रूमेंट) जारी करने के लिए अधिकृत हो जाएंगी। जबकि इसका अधिकार सिर्फ आरबीआई को है। बेयरर इंस्ट्रूमेंट करेंसी का विकल्प बन सकते हैं। इससे एक गलत परंपरा स्थापित होगी।”
भारतीय चुनाव आयोग: मोदी सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर चुनाव आयोग के कड़े विरोध को भी नजरअंदाज किया। इसके लिए सरकार ने संसद में झूठ बोला। मई 2017 में चुनाव आयोग ने केंद्रीय कानून और न्याय मंत्रालय को लिखित चेतावनी दी कि इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए राजनीतिक दलों को विदेशी स्रोतों से संभावित अवैध चंदे को छिपाने में मदद मिलेगी। संदिग्ध चंदादाता फर्जी (शेल) कंपनियां स्थापित करके राजनेताओं के पास काला धन पहुंचा देंगे और पैसे का सही स्रोत कभी सामने नहीं आएगा।
2018 के संसद के शीतकालीन सत्र में राज्यसभा सदस्य मोहम्मद नदीमुल हक़ ने सरकार से एक सवाल पूछा, “क्या भारतीय चुनाव आयोग ने इलेक्टोरल बॉन्ड के ऊपर अपना विरोध दर्ज किया था?” तत्कालीन वित्त राज्य मंत्री पी राधाकृष्णन ने जवाब में कहा, “सरकार को इलेक्टोरल बॉन्ड के मुद्दे पर चुनाव आयोग की तरफ से किसी भी तरह के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा।”
राजनीतिक पार्टियां:
कांग्रेस के तत्कालीन कोषाध्यक्ष मोती लाल बोरा ने लिखा, “सरकार राजनीतिक दलों की चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता को लेकर चिंतित है। पारदर्शिता का तात्पर्य है कि मतदाता को तीन बातें पता होनी चाहिए। एक, चंदा देने वाला कौन है और दो, किस राजनीतिक पार्टी को चंदा दिया जा रहा है और तीन, चंदे की राशि क्या है।” प्रस्तावित योजना की किसी रूपरेखा के अभाव में बोरा ने कहा कि वित्त मंत्री के भाषण और सार्वजनिक टिप्पणियों से एक बात समझ में आती है कि चंदा देने वाले का नाम और प्राप्तकर्ता का नाम सिर्फ सरकार को ही पता होगा, आम जनता को नहीं।
इसी तरह बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती, सीपीआई के महासचिव सुधाकर रेड्डी आदि ने भी इस योजना में पारदर्शिता न होने की बात कही।
बावजूद इसके सरकार अभी भी यही दावा कर रही है कि इसे चुनावी चंदे की व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के उद्देश्य से लागू किया गया है। जबकि एक सच्चाई यह भी है कि अब तक इलेक्टोरल बॉन्ड की सबसे बड़ी लाभार्थी भाजपा रही है।
किस पार्टी को कितना लाभ- एक रिपोर्ट?
पार्टियों की ऑडिट रिपोर्ट के अनुसार 2017-18 में कांग्रेस ने चंदे से कुल 199 करोड़ रुपये जुटाए जबकि इसी साल भाजपा के खाते में 1027 करोड़ रुपये आए। साल 2005-06 में तत्कालीन सत्ताधारी दल कांग्रेस को भाजपा से 3.25 गुना ज्यादा चंदा मिला था। चंदे के इस अनुपात को भाजपा ने पहली बार 2016- 17 में बदला जब उसे कांग्रेस से 4.5 गुना अधिक चंदा मिला। 2017-18 में कांग्रेस से भाजपा के चंदे में 5.1 गुना बढ़ोतरी हुई।
चुनावी बॉन्ड पर इतना हंगामा क्यों?
सत्ता सचमुच बड़ी चीज होती है। सत्ता के आगे कॉर्पोरेट तक नतमस्तक दिखते हैं, उसे खुश करने के लिए पैर के अंगूठे पर भी खड़े होते दिखते हैं। सत्ता प्रसन्न होगी तभी वे ‘वरदान’ मांग सकेंगे। अब ये ‘वरदान’ निजी और कारोबारी समेत तमाम रूपों में हो सकता है। चुनावी चंदों को दिए जाने की प्रवृत्ति बताती है कि जिस दल की जब सरकार रहती है तो उसे मिलने वाले चंदे का ग्राफ ऊपर रहता है और वो दल चंदा देने वाले कॉर्पोरेट के हितों को ध्यान में रखते हुए नियम कानून बनाते है और उन्हें फायदा पहुंचाने की भरपूर कोशिश करते है ।
कुछ उदाहरण से ऐसे समझ सकते हैं:
गौतम अडानी की दोस्ती सत्ता में शीर्ष पर बैठे लोगों से जगजाहिर है, इसका ही परिणाम है कि कोरोना काल में जब सभी का बिजनेस बंद था या नीचे जा रहा था तो गौतम अडानी का बिजनेस ऊपर जा रहा था वो भी इतना ऊपर की वो विश्व की दूसरे रईस की श्रेणी में आ गए।
एक विदेशी अखबार की खबर पर भारत में न्यूज़ क्लिक पर छापे पड़ जाते हैं, लेकिन वहीं हिंडन वर्ग की रिर्पोट पर अदानी ग्रुप पर कोई छापा नही पड़ता है, बल्कि देश के सभी टेंडर में अदानी ग्रुप को ही प्राथमिकता दी जाती है चाहे वो हवाई अड्डा के बारे में टेंडर ही या पोर्ट का।